शुक्रवार, 10 दिसंबर 2010

कर्मगति: गोवंश का प्रतिकार

कर्मगति: गोवंश का प्रतिकार: "भारत कृषि प्रधान देश रहा है,और भारत की धरती जाति पांति धर्म धरती से हमेशा असमानता के अन्दर समानता को लेकर चलती रही है। गोवंश की बढोत्तरी के ..."

गोवंश का प्रतिकार

भारत कृषि प्रधान देश रहा है,और भारत की धरती जाति पांति धर्म धरती से हमेशा असमानता के अन्दर समानता को लेकर चलती रही है। गोवंश की बढोत्तरी के लिये किसी भी जाति ने कभी प्रतिकार नही किया,और किसी भी धर्म ने अपनी बेदखली नही दिखाई। गाय के लिये हिन्दू की मान्यता केवल इसलिये मानी गयी थी कि गाय के गोबर में भी इतनी इनर्जी होती है कि किसी भी कच्चे स्थान पर उसकी लिपाई के बाद वहां का बाह्य वातावण अपने आप शुद्ध होकर खुद में शक्तिवान होजाता है। इसके प्रयोग के लिये वैज्ञानिकों ने जो शोध किये उसके अनुसार जो कैमिकल ड्राई बैटरी में डाला जाता है और उसके अन्दर जो पतली पर्त लेई की लगाई जाती है,उसके सूख जाने पर बैटरी बेकार हो जाती है उस बैटरी को गाय के गोबर को पानी से घोल कर उसके अन्दर सीरीज में कुछ समय रखने के बाद वह बैटरी महीनो कार्य के लिये प्रयोग में लाई जा सकती है। इसके उपयोग के लिये जहां बिजली की कमी है और बिजली नही पहुंच सकती है वहां के लोगों ने इस क्रिया को खूब प्रयोग करना शुरु किया और वे आज भी रात के समय मिट्टी के तेल की चिमनी की जगह एल ई डी को लगाकर और इस बैटरी का प्रयोग कर रहे है। इसके अलावा स्वस्थ भारत के लिये स्वस्थ सन्तान की जरूरत मानी जाती है,कितनी ही अन्ग्रेजी दवाइयां प्रयोग में लायी जाती रहें लेकिन जो बात गाय के दूध में देखी जाती है वह किसी भी पोषक आहार में नही मिलती है। गाय के दूध के कम होते ही अधिकांश लोग किसी न किसी बीमारी के मरीज हो गये और वे आजीवन अस्पतालों के चक्कर लगाने के लिये मजबूर हो गये। इसके बाद गोवंश की समाप्ति की ओर जाने के प्रति लोगों को होश जब आया जब उन्हे पता लगा कि अन्ग्रेजी दवाइयों के प्रयोग करने और उन दवाइयों के प्रयोग से शरीर को मिलने वाली ऊर्जा क्षणिक होती है उस ऊर्जा को केवल कुछ समय के लिये ही प्रयोग में लाया जा सकता है उसके बाद शरीर बेकार हो जाता है,शरीर की शक्ति की पूर्णता के लिये लोगों ने और भी विकल्पों का आवाहन किया कोई मल्टी विटामिन और कोई मांस अंडा आदि के लिये भागा लेकिन वह तत्व शरीर में नही जा पाये जिनसे शरीर को संचालित करने वाले तत्वों की पूर्ति हो सकती थी,यहां तक कि शरीर के अन्दर गर्मी के पैदा होने के बाद कामुकता बढने लगी और स्त्री पुरुषों की तरफ़ और पुरुष स्त्री की भागने के लिये मजबूर होने लगा उसके लिये समाज में अनैतिकता का भूकंप सा आगया,आज शादी होती कल अपनी इच्छा की पूर्ति नही होने पर लडके लडकियां सम्बन्ध विच्छेद करने के बाद दूसरे मर्दों और स्त्रियों की तलाश में लगने लगे,किसी को पता नही चलता कि कौन किसका बाप है और कौन किसकी माता है। इस प्रकार चलन से वही भारत की धरती जहां एक भाई अपने भाई के लिये जान देने को तैयार हो जाता था वहीं एक भाई ही दूसरे भाई का दुश्मन बनने लगा,इसकी आड में राजनीतिक लोगों ने भी अपनी खूब रोटियां सेंकी जिसे जहां दिखा वह उसी दिशा का फ़ायदा उठाकर अपने स्वार्थ की पूर्ति करने लगा और समाज की इस निर्बलता को समाप्त करने के लिये जो मुहिम शुरु की गयी उसके द्वारा दुबारा से उसी पुराने भारत की निर्माण प्रक्रिया को चालू करने का आवाहन किया जाने लगा। गाय को पालने के लिये लोग ग्रामीण परिवेश में अपने को स्वतंत्र मानते है,वह केवल घास फ़ूस से अपना पेट भरती है,जमीनी उपजों के अन्दर गोबर से ह्यूमश की मात्रा अधिक होने से जो भी फ़सल होती है वह शक्तिवान और शरीर को ऊर्जा देने वाली होती है,इसके अलावा बछडों को पालकर जब बैल का रूप दिया जाता है तो वे खेती किसानी के काम में बडे ही सहायक होते है,धरती की असमानता के अन्दर बैल ही अपने बल का प्रयोग कर पाने में समर्थ होते है मशीनी खेती को कितना ही बल दिया गया लेकिन वह जमीन को उस काबिल नही कर पायी जिससे कि जमीन के अन्दर के पोषक तत्व फ़सलों को मिल सकते उसके बाद भी जो जमीनी कारण बनते है उनके अनुसार छोटे खेत और ऊबड खाबड खेत तो बंजर ही रहने लगे कारण ट्रेक्टर आदि उस जमीन को जोत ही नही पाते थे। पानी के साधनों का प्रयोग भी बढा लेकिन वे भी अपना कार्य नही कर पाये कारण जहां पानी की अति आवश्यक्ता है वहां पानी के लिये ट्यूबबैल लगाये जाने लगे उन्होने पहले से जमा धरती के अन्दर के पानी के स्त्रोतों को सुखा डाला और जो भी किसान की मेहनत और धन था सभी बरबाद होने लगा,बैलों के प्रयोग से समय पर जुताई होने से और गहरी जुताई होने से बरसने वाला पानी जमीन के अन्दर चला जाता है,जैसे ही सर्दी की ऋतु शुरु होती है और ऊपरी सतह ठंडी होती है वही बरसात का पानी धरती की गर्मी के कारण ऊपरी सतह की तरफ़ आना शुरु हो जाता है और रबी वाली फ़सलें अगर पानी कम भी बरसा तो वे पनप जाती थी,इसके अलावा जो फ़सलें पैदा होने लगी उनके अन्दर अधिक पैदावारी करने के चक्कर में पोषक तत्व लगभग न के बराबर ही मिलते,केवल फ़ाइबर की अधिकता से उदर पोषण होजाता था लेकिन अन्न से जो शरीर को बल मिलता था वह न के बराबर था,अन्न के साथ में जो सब्जी भाजी या अन्य कोई वस्तु ली जाती तो वह शरीर को चलाने के लिये अपनी कुछ शक्ति देती रही। कमजोरी के कारण जो भी किसान या गरीब तबके के लोग थे वे मशीनी खेती के कारण बेकार से होने लगे उनका पलायन शहरों की तरफ़ होने लगा और खेती वाले कार्य से उनका दिमाग दूर हो गया,वे भी उसी भीड चाल में शामिल हो गये,फ़ाइबर से पेट भर लेना और पडे रहना जो भी कार्य मिला उसे किया और फ़िर किसी न किसी कार्य की तरफ़ अपना दिमाग घुमा लिया। दूध की अधिकता के लिये जरसी गायों का चलन भी शुरु हुया लेकिन दूध और बछडों में दम नही होने से वह दूध भी केवल चाय के लिये उत्तम रहता अलावा पीने के बाद कोई शक्ति नही और न ही कोई दम,जरसी गाय के बछडों को खेती के काम में भी नही लिया जा सकता था इसलिये उन्हे कसाई को बेचने के अलावा और कोई औचित्य ही नही,जिस धरती पर गोवध के लिये महर्षियों ने मना किया था और कहा था कि जिस दिन इस धरती पर गोवध होने लगेगा उस दिन से भारत की सभ्यता और भारतीयता का अन्त होने लगेगा,वही होने लगा सन्तान बिगडने लगी,माता पिता दुखी होने लगे सन्तान अपने अनुसार चलने लगी अधिक दिक्कत हुयी तो विदेश को पलायन करने लगी,वर्ण शंकर पैदाइस होने के बाद खुद के पुत्र को ही पता नही होता है कि खुद का बाप कौन है और जब खुद के खून का पता नही है तो लगाव होगा कहां से।

शनिवार, 27 नवंबर 2010

शक्ति को इकट्ठा कीजिये

बचपन से ही एक बात तो माता पिता ने भी बताई थी कि जितनी हो सके विद्या की शक्ति को बटोर लो,यह बिना कीमत के मिलती है,हर जगह मिलती है,मनचाही मिलती है,इसे जितना खर्च करो उतनी बढती है,क से कमाना सिखाती है,ख से खाना बताती है,ग से गाना बताती है,घ से भरपूर रहने की सहमति देती है और ड. से याचना का भाव देती है,च से चाहत देती है,छ से उत्तम और घटिया की पहिचान बताती है,ज से नयी उत्पत्ति की तरफ़ जाने का संकेत करती है,झ से फ़ालतू की विद्या को भूलने के लिये अपनी क्रिया देती है,ट से महसूस करने की क्रिया का रूप समझाती है,ठ से किये जाने वाले कार्य के अन्दर कलाकारी लाने को कहती है,ड से कार्य के अन्दर जमे रहने के लिये अपनी योग्यता को देती है,ढ से खराब अवधारणाओं से दूर रहने के लिये कहती है,ण से अपने को सुरक्षित रखने के लिये आसपास के वातावरण को सम्भालने के लिये कहती है,त से अच्छे और बुरे के बीच का अन्तर समझने की शक्ति देती है,थ से जो अच्छा है उसे प्राप्त करने की कला देती है,द से अपने हिस्से से दूसरों की सहायता के लिये भी कहती है,न से जो भी करना है उसका सार कभी अटल नही है इसका भी ज्ञान देती है,प से मानसिकता को शुद्ध रखने के लिये फ़ से अपनी विचारधारा को अक्समात बदलने के लिये ब से प्राप्त विद्या के प्रयोग में लेने के लिये और म से अपने प्रभाव को वातावरण में व्याप्त करने के लिये कहती है,य से जो है वह इसी जगत में है, र से जीव है तो जगत है,ल से जीव है तो शाखा है,व से जीव की औकात केवल धरती पर रहने वाले अणुओं के ऊपर ही निर्भर है,श से इन्तजार का फ़ल प्राप्त करने के लिये ष से कई दिशाओं में अपने रुख को हमेशा तैयार रखने के लिये स से अपने आप को नरम रखने के लिये ह से ब्रह्माण्ड की तरफ़ भी ध्यान रखने के लिये क्ष से जीवों की रक्षा और दया करने के लिये त्र से ईश्वर की शक्ति पर विश्वास रखने के लिये ज्ञ से अन्त में जहां से जो आया वहीं समा जाने की विद्या को प्रकट करने के लिये कहा गया है।

उत्तम मध्यम और निम्न गति को प्रदान करने के लिये स्वरों का प्रयोग किया गया है,अ कहने में तो साधारण है लेकिन इसके बिना कोई भी गति नही है,आ से बडप्पन पैदा करने के लिये इ से मुर्दा को जीवित करने के लिये ई से स्त्रीत्व और भूमि का निरूपण करने के लिये ए से साधारण विचार को मध्यम गति देने के लिये,ऐ से मारक शक्ति को पैदा करने के लिये और ओ से शान्त रहने तथा वीभत्सता को रोकने के लिये औ से चालाकी और बुद्धिमानी को प्रकट करने के लिये अं से ऊपर की तरफ़ सोचने के लिये और अ: से जो भी प्राप्त किया है उसे यहीं छोड देने के लिये शक्ति का सिद्धान्त कहा गया है।

मंत्रयुति के लिये अक्षर को जोडा गया वाक्य युति के लिये शब्द को जोडा गया। भावना की युति के लिये वाक्यों को जोडा गया,ब्रह्माण्ड की युति को प्राप्त करने के लिये भावना की युति को जोडा गया। भावना को भौतिकता में लाने के लिये पदार्थ को जोडा गया। पदार्थ को साकार करने के लिये जीव को जोडा गया,पदार्थ को निराकार करने के लिये भावना और पदार्थ के मिश्रण से मूर्ति को बनाया गया। मूर्ति से फ़ल को प्राप्त करने के लिये श्रद्धा को साथ में लिया गया,श्रद्धा और विश्वास को साथ लेकर कार्य की पूर्णता को लिया गया।

जीव से जीव की उत्पत्ति की गयी। जड से चेतन का रूप प्रदान किया गया। रूप और भाव बदल कर विचित्रता की भावना को प्रकट किया गया,पंचभूतो के मिश्रण से कल्पना दी गयी,भूतों के कम या अधिक प्रयोग से स्वभाव का निर्माण किया गया,जड अधिक करने पर चेतन की कमी की गई और चेतन को अधिक करने पर जडता को कम किया गया। जड और चेतन का साथ किया गया। बिना एक दूसरे के औकात को समाप्त किया गया।

जहां आग पैदा की गयी उसके दूसरे कोण पर पानी को पैदा किया गया,जहां बुद्धि को प्रकट किया गया वहीं दूसरी ओर मन को प्रकट किया गया,बुद्धि के विस्तार के लिये द्रश्य श्रव्य घ्राण अनुभव को प्रकट किया गया,चेतन होकर ग्रहण करने की क्षमता का विकास करने पर हिंसकता को दूर किया गया,जहां ग्रहण करने की क्षमता नही दी गयी वहां हिंसकता का प्रभाव दिया गया,एक को पालने के लिये बनाया गया दूसरे को मारने के लिये बनाया गया,दोनो के बीच में फ़ंसाकर जीव को पैदा किया गया।

उम्र को कम करने के लिये चिन्ता को दिया गया,उम्र को अधिक करने के लिये विचार शून्य होकर रहने को बोला गया,पदार्थ की अधिकता को ताकत के रूप में प्रकट किया गया,क्षमता को अधिक या कम करने के लिये कई भावनाओं को एक साथ जोडा गया। जीव को पदार्थ के सेवन का अवसर दिया गया,मिट्टी को मिट्टी खाने के लिये रूप में परिवर्तन किया गया,मिट्टी को ही मीठा खट्ठा चरपरा कसैला बनाया गया। मिट्टी को ही मारने के लिये और मिट्टी को ही जीने के लिये दवाइयों के रूप में परिवर्तित किया गया,मिट्टी से मिट्टी को लडाने के लिये जीव की उत्पत्ति की गयी।

शुक्रवार, 26 नवंबर 2010

गधा पंजीरी

बुद्धिमान जब किसी भी काम में पीछे रह जाये और बेवकूफ़ उसी काम में अपने को आगे निकाल ले जाये तो पुराने जमाने से एक कहावत कही जाती है-"तेज बुद्धि घोडा बंधे,या भजि भजि  मरि जांय,माया तेरे राज में गधा पंजीरी खांय",इस कहावत को आज के जमाने में बहुत ही सोच समझ कर लोग प्रयोग में ला रहे है। जितनी अधिक शिक्षा हो जायेगी उतने ही कानून आने लगेंगे,और जितने कानून आने लगेंगे उतना ही आदमी को कानून से डर लगने लगेगा,कानून से डरने के कारण वह न तो कुछ कर पायेगा और न ही आगे बढ पायेगा। लेकिन जिस कानून से इतना डर डर कर वह चला उसी कानून ने समय पर कोई सहायता नही की तो कम से कम कानून की तरफ़ से मन तो खट्टा हो ही जायेगा। उन्ही कानूनो से बच कर चलने की और कानून के विरुद्ध कार्य करने की मानसिक अभिलाषा तो बनने ही लगेगी। जब कानून से विरुद्ध कार्य किया जाने लगेगा तो अपने आप से ही उन्नति सामने आने लगेगी। उन्नति को देखकर कौन कानून जानने वाला उक्त कहावत को नही कहेगा। उत्तर प्रदेश का मैनपुरी जिला इस मामले में बहुत ही तेज है,जिसे देखो कानून को हाथ में लेकर चलने से मतलब रखता है। वहां के थानों में भी उन्ही लोगों को नौकरी दी जाती है जो अपने में चलते पुर्जा लोग होते है,किसी से भी अगर उलझ जाओ तो सीधे मुलायम सिंह और मायावती से कम बात ही नही करता है,और मुझे यह भी समझ में नही आता है कि इन लोगों के पास इतना समय कैसे होता है जो फ़ोन करते ही आदेश दे देते है। हर कोई बिना बन्दूक के नही चलना चाहता है,जिसे देखो वही कलक्टरी में अपने लिये लाइसेंस बनवाने के लिये अपनी अर्जी को पेश किये दिखाई देता है,एम एल ए तो इसी बात की फ़िराक में रहते है कि कब किसका लाइसेंस बनवाना है और किसे रद्द करना है। अगर कोई कार्य एक नम्बर से नही होता है तो दो नम्बर से बनवाने के लिये कोई न कोई हाजिर हो ही जाता है। जब जिला से कोई लाइसेंस नही बना तो लोगों ने सीधे ही जम्मू काश्मीर की सरकार से दो नम्बर में लाइसेंस लेने शुरु कर दिये। अब प्रशासन को भी फ़ुर्सत कहां है कि वह चैक करता फ़िरे कि किसके पास कहां का लाइसेंस है,जब कोई वारदात हो जाती है तो प्रशासन को देखने की जरूरत पडती है। इतने नेता हमारे जमाने में नही थे,लोग उन्ही को नेता कहा करते थे जो किसी न किसी प्रकार से अपने को राजनीति से जोड कर रखते थे और किसी चोरी डकैती या किसी के लिये अचानक सहायता या किसी प्रकार की राजनीतिक दखलंदाजी में दिक्कत से बचाने के काम आती हो,अधिकतर वही स्वतंत्रता संग्राम सैनानी भी हुये है जो मैनपुरी धान बेचने के लिये भैंसा गाडी में जाया करते थे,रास्ते में गाडी का रस्सा टूट गया तो सडक के किनारे गडे टेलीफ़ोन के खम्भे से तार तोडने के बाद गाडी की रस्सी की जगह बांधने के लिये टेलीफ़ोन के खम्भे पर चढे इतने में अंग्रेजी सरकार की जीप आयी और तार काटने के चक्कर में बन्दी बना दिये गये उस समय के कानून से जो भी सजा हुयी उसी के अनुसार स्वतंत्रता के बाद उन्हे जेल में नाम लिखा होने के कारण स्वतंत्रता संग्राम में शामिल होने वाले और देश को स्वतंत्र करवाने वाले लोगों में जोड दिया गया। कभी कभी तो इस प्रकार के स्वतंत्रता संग्राम सेनानी अपने को अकेला बैठने पर सोचा ही करते होंगे कि अगर रस्सी भैंसागाडी से नही टूटी होती तो आज उन्हे घर बैठे पेंसन नही मिल रही होती,उसके बाद उन्हे यह भी ख्याल आता होगा कि जो लोग उस समय उन्हे अकेला छोड कर भाग गये थे,वे आज भी धान के खेतों में पुर्र पुर्र करते घूम रहे है,अगर वे भी पकडे गये होते तो आज वे भी मजे से एयरकंडीशन में सफ़र कर रहे होते और घर बैठे पेंसन आ रही होती,लडके और बहुयें उन्हे भी सिर पर बैठाकर चल रहे होते,जहां भी पंचायत होती उन्हे भी पहले पुकारा जाता। घर पर पढाई का साधन नही था,जो शिक्षा पूरी हो नही पायी,केवल जानवरों को चराने और सुबह शाम चारा पानी करने के अलावा कोई काम नही था,चाचा ने बडी मुश्किल से ओलम बारह खडी सिखा दी थी,वह भी काम के आगे आधी अधूरी याद रही। घर पर किसी बात पर तू तू मैं मैं हुयी घर से भागकर शहर की तरफ़ चले वहां पर फ़ौज की भर्ती हो रही थी,जाकर लाइन में खडे हो गये,जानवर चराने के कारण शरीर तो लम्बा चौडा हो ही गया था,और जंगलों में जानवर चराने वालों के साथ अखाडे तो तोडे ही जाते थे,इसलिये फ़ौज में सलेक्सन भी हो गया। घर वालों को दो महिने बाद किसी से फ़ौजी लेटर लिख कर डलवा दिया कि फ़ौज में भर्ती हो गये है,छ: महिने बाद रंगरूटी से छुट्टी मिलेगी तभी गांव आ पायेंगे। छ; महिने बाद गांव आये तो लडका फ़ौज में भर्ती हो गया है,शादी वाले भी आकर दरवाजा खूंदने लगे,और अच्छी दहेज की मार से शादी भी पक्की हो गयी,शादी भी हो गयी,पत्नी दस महिने मायके में और बाकी के छुट्टी के दिनो में ससुराल में जीवन को बिताने लगी,एक दिन फ़ौज में ही गस्त के समय पैर फ़िसला पत्थरों की खडवडाहट और शोर सुनकर दुश्मन ने गोली चलानी शुरु कर दीं,भाग्य से गोली सिर में लगी और शहीद हो गये,दूसरी साल ही गांव के मुख्य चौराहे पर मूर्ति स्थापित हो गयी पत्नी को इतना धन मिल गया कि वह मायका और ससुराल छोड कर सीधी शहर में जा बसी।

शहर में भी पढाई पूरी हो नही पायी अम्मा पिताजी गांव से आये थे सो इतना ही कमा पाते थे कि एक बार की रोटी ही मिल जाती वह क्या कम थी,अब बडे हो गये तो पिताजी ने नौकरी किसी प्राइवेट फ़ैक्टरी में लगवा दी,रोजाना नौकरी पर जाना और रोजाना आना तन्ख्हा मिली वह सीधे से आकर अम्मा को दे देना,एक बार दोस्तों के साथ तन्ख्हा मिलने के बाद पिक्चर चले गये,आधी तन्खाह पिक्चर की भेंट चढ गयी घर आकर डांत पडी और दूसरे दिन से नौकरी छोड दी,भाग्य से चुनाव हो रहे थे,एक प्रत्यासी के साथ लग गये,उसी के साथ रहना और उसी के साथ खाना कभी कभार घर आये तो आये नही तो कोई बात नही कहीं भी सो गये,भाग्य की बात प्रत्यासी जीत गया,जब चुनाव में साथ दिया तो उसका भी फ़र्ज साथ देने का बनता था,एक ठेका आपके नाम से दिलवा दिया,आधी आधी कमाई का इशारा था,करना क्या था काम तो दूसरे ठेकेदार को करना था,केवल नाम ही तो आपका था,और कमाई होने लगी तो अम्मा पिताजी का ख्याल आया एक बढिया मकान भी बनवा दिया और जिस ऐरिया में मकान बनाया था एक नेता के रूप में पहिचान होने लगी,किसी का पुतला जलाना है किसी के बारे में गालियां देनी है सरकारी अफ़सरों को काम से रोकना है सडक बन्द करनी है किसी आफ़िस में जाकर हल्ला मचाना है पत्थर फ़ेंककर गाडियों को तोडना है सभी काम आसानी से होने लगे और अगले चुनाव में साथी उम्मीदार को तो जीतना था ही नही विरोधी पार्टी में टिकट का बन्दोबस्त हो गया,और भाग्य की बात जीत भी गये,अब क्या था,जो करना था वह कर रहे है,बाकी के कानून जानने वाले और साथ पढने वाले अभी भी नौकरी की तलास में भटक रहे है।

तलाक से बचने के तरीके

शादी एक पवित्र रिस्ता होता है जो व्यक्ति के काम नाम के पुरुषार्थ को पूर्ण करता है। वर या कन्या की शादी के लिये पहले वर या कन्या की तलाश की जाती है,पहले यह कार्य सगे सम्बन्धियों पर निर्भर हुआ करता था उसके बाद यह पत्र पत्रिकाओं पर निर्भर हो गया और आज यह नेट और शादी विवाह वाली साइटों पर निर्भर हो गया है। शादी करना एक मंहगी गाडी को खरीदने के जैसा है,गाडी को किस्त आदि पर खरीदा तो आसानी से जा सकता है लेकिन उसकी देख रेख और किस्तों के भुगतान का सही प्रबन्ध नही है तो वह गाडी किस्त देने वाले ले ही जायेंगे और बाद में सोचना पडेगा कि कितना नुकसान और कितना फ़ायदा हुआ,जो पहले जेब से था वह भी दे दिया और पेनल्टी में भी देना पडा,जानकार और परिवार के लोगों के बीच में बेइज्जती भी हुयी,कल अपने को शंहशाह समझे जाने वाले आज अपना चेहरा छुपाकर कमरे के अन्दर पड गये। शादी करने से पहले यह सोच लेना चाहिये कि पत्नी को लाने के पहले घर का वातावरण सही है,घर में बहने है वे कितनी होशियार है और शादी के बाद वे पत्नी से सामजस्य बिठा पायेंगी या नही,माँ का स्नेह पुत्र के प्रति आजीवन रहता है,पत्नी के आने के बाद माँ भी अपना अधिकार पूरा समझती है,माँ और पत्नी के बीच की खाई को पाटने के लिये हिम्मत है कि नहीं,यह भी सोचना चाहिये कि बहू किसी दूसरे घर से आयेगी और उस घर के रीति रिवाज और चाल चलन अच्छे भी हो सकते है और बुरे भी हो सकते है,उन्हे सम्भालने की हिम्मत है कि नही,अगर यह सोचा जाये कि पैसा बहुत है और किसी भी समस्या का समाधान पैसे से निकाल लिया जायेगा तो यह बहुत बडी भूल है,शादी और पैसे में जमीन आसमान का फ़र्क है,शादी सन्तति की बढोत्तरी और ग्रहस्थ जीवन के लिये की जाती है जबकि पैसा जीवन यापन में आने वाली बाधाओं को दूर करने के लिये कमाया जाता है। अगर सही पत्नी मिली है और वह घर को चलाना जानती है तो धन की एक बार कमी भी हो जायेगी तो पत्नी घर को चलाकर आगे की स्थिति को सम्भाल लेगी,लेकिन कितना ही पैसा है और पत्नी की नजर अगर घूम गयी तो पूरा पैसा और इज्जत मान सम्मान सभी बरबाद होने में देर नही लगती है।
  • पति को पत्नी को खोजने के लिये जहां तक हो अपने रिस्तेदारों से सम्पर्क में रहना चाहिये,जब कोई रिस्तेदारी में पत्नी जो जीवन में साथ देने वाली नही मिले तब बाहर की दुनिया में अपनी कोशिश को करना चाहिये,नेट पर या पत्र पत्रिकाओं में आने वाले रिस्ते अक्समात भरोसा करने वाले नही होते है,जो लोग अपने समाज से कटे होते है और एकान्त जीवन जीने के आदी होते है वही इन बातों का सहारा लेते है,और सबसे अधिक सामाजिक व्यक्ति एक ही बात को समझ सकता है कि जो व्यक्ति अपने समाज और परिवार का ही नही हो सका है उसकी सन्तति जिससे शादी करनी है वह सामाजिकता और परिवार वाली बातों में कितना साथ दे पायेगी।
  • शादी विवाह के लिये चुने जाने वाले रिस्ते में शिक्षा को सबसे पहले देखा जाना चाहिये,शिक्षा के अन्दर यह भी देखना चाहिये कि लडकी ने शिक्षा को प्राप्त करने के लिये कितने समय अकेले जीवन को बिताया है,उस अकेले जीवन को बिताने के अन्दर वह अपनी प्राप्त करने वाली शिक्षा के अन्दर कितना परसेंट ला पायी है,अगर वह बाहर रहकर शिक्षा में कमजोर रही है तो यह बात जरूरी है कि उसने किसी न किसी प्रकार का रोग अपने दिमाग में पाला है और उस रोग के कारण उसकी पढाई कमजोर हुयी है या तो वह अपनी जिम्मेदारी को नही समझ कर तथा अपने परिवार वालों को धोखा देकर बोर्डिंग आदि में रहकर अथवा कम्पयूटर आदि से अपनी नेट वाली गतिविधियों के प्रति अपनी कारगुजारी करती रही है या मोबाइल से एस एम एस आदि से वह मानसिक प्यार प्रेम वाली भावना में बहती रही है इसलिये उसका शिक्षा के अन्दर परसेंटेज कम आया है। जब इस बात का ध्यान हो जाये तो समझना चाहिये कि जो व्यक्ति अपने परिवार वालों को जिन्होने उसे पाला पोषा बडा किया हर सुख दुख का ध्यान रखा उन्हे ही धोखा दे सकती है तो तुम्हारी पत्नी बनकर वह तुम्हारे साथ कितना भला कर सकती है।
  • खोजी जाने वाली पत्नी की माता के बारे में भी पता करना चाहिये कि वह अपने देवर जेठ सास स्वसुर और परिवार से कितना बनाकर चली है,अगर वह अपनी दूर रहने की मजबूरी को बयान करती है तो उसके पूर्व खान्दान के बारे में उनसे मिलकर पता करना चाहिये,कि उनकी बहू ने उनके साथ कैसा व्यवहार किया है,वैसे यह भी कहा जायेगा कि जिनसे पूंछा गया है वे लोग पुराने रीति रिवाज के है,उन्हे उनसे जलन है आदि,लेकिन एक बात तो ध्यान में रखी ही जा सकती है कि जो माँ अपने परिवार से दूरी बनाकर चली जिसने अपने पति को अपनी उंगलियों पर नचाया वह अपनी पुत्री को क्या शिक्षा दे सकती है और समय आने पर वह तुम्हारे साथ क्या व्यवहार कर सकती है,अथवा वह शादी के तुरत बाद तुम्हारे माता पिता से परिवार से अलग रहने के लिये जोर देगी जिससे उसकी बेटी आगे के जीवन में तुम्हे भी उन्ही की तरह से नचाने की कोशिश करे,और तुम्हारे को यह हजम नही हो मामला कोर्ट केश तक पहुंचे।
  • शादी विवाह के मामले में यह भी सोचना चाहिये कि कोई कितना खूबशूरत है,और उस खूबशूरती पर फ़िदा होकर अगर शादी की जाती है तो जिस दिन शादी होती है उससे अधिक से अधिक तीन महिने वह खूबशूरती अच्छी लगती है उसके बाद उस खूबशूरती से अचानक नफ़रत पैदा हो जाती है,उस नफ़रत का एक ही कारण होता है कि शरीर अपना कार्य करना बन्द कर देता है तरह तरह की कमजोरी आने लगती है दिमाग में चिढचिढापन पैदा हो जाता है। सिर दर्द की शिकायत हो जाती है,भोजन पचने में दिक्कत आने लगती है,उस समय वह खूबशूरती काल लगने लगती है और उस खूबशूरती के सामने आने में भी दिक्कत होने लगती है,या तो गुस्से में कोई बुरी बात कह दी जाती है या फ़ोन आदि से खूबशूरती के घर वालों से कोई बुरी बात कहते ही खूबशूरती के घर वाले आकर सवार हो जाते है और मामला गम्भीर इसलिये भी हो जाता है कि शरीर मे दम नही होता है,माता पिता बहिन भाई अपनी अपनी ईगो को कायम रखना चाहते है,खूबशूरती सीधी अपने घर जाती है किसी वकील से राय लेती है,वकील को भी ऐसे ही केश लेने में मजा इसलिये भी आता है कि कमाई का साधन चोरी के डकैती के केशों में नही होता है,केवल सामाजिक और पारिवारिक रिस्तों के अन्दर कमाई का साधन इसलिये अधिक बनता है क्योंकि उसे पुलिस को भी सम्भालना पडता है जिन लोगों के नाम रिपोर्ट में उस खूबशूरती ने लिखवाये होते है उनके लिये पुलिस अपनी पूरी शक्ति का प्रयोग केवल इसलिये करती है क्योंकि जितनी उसकी कोशिश होगी उतना ही धन उससे बचने के लिये खर्च किया जायेगा,और केवल वकील के अलावा और कोन बीच का कार्य कर सकता है,पुलिस को जितना देना है उससे दो सौ परसेंट वकील अपने लिये पहले निकाल लेगा उसके बाद ही वह पुलिस से अपनी सांठ गांठ बिठापाने में सफ़ल होगा। इस खूबशूरती के लिये जब कानून ने सीधा ही अन्दर जाने का उपक्रम जारी कर रखा हो,वह भी केवल इसलिये कि हिन्दू समाज में शादी के बाद जो बन्धन होते है वे आजीवन के होते है,और ब्रिटिस कानून की मान्यता केवल वहीं खंडित हो जाती है जहां वह देखता है कि हिन्दू विवाह में एक से अधिक पत्नी को रखने का रिवाज नही है,तो जो कानून बनाये गये उनके द्वारा यह ही पक्का सिद्धान्त बनाया गया कि सबसे पहले हिन्दू की शक्ति को ही विदीर्ण कर दिया जाये,और उसे अपनी पत्नी को किसी दूसरे के पास भोगने के लिये कानूनी रूप से भेजना पडे और किसी दूसरे की पत्नी को अपने पास भोगने के लिये लाना पडे। इस कानून का पूरा फ़ायदा वह खूबशूरती लेती तो है लेकिन वह अपने परिवार के उन सदस्यों के ईगो के कारण जो पहले से ही इस बिर्टिसिया कानून की चपेट में है और उसी कानून को अपनी रोजी रोटी बनाकर यानी कान्वेंट की शिक्षा से पूर्ण होकर अपने पूर्ण विद्वान की श्रेणी में लाने की कोशिश करते है। तो वह खूबशूरती जो महज जवानी के जोश में होश को खोकर लायी गयी थी एक झटके में अपने लटके दिखाकर चली गयी और जो था वह भी गया आगे के जीवन के लिये भी कोई आशा भी नही है कि वह सही चल पायेगा या नहीं।
  • शादी करने के लिये जहां तक हो सके दिन का समय निश्चित करना चाहिये,रात में केवल गन्धर्व विवाह ही किये जाते है,और गन्धर्व विवाह को किसी नाटक के विवाह की तरह से समझा जाता है जो रात को किया गया और सुबह को बरबाद,दिन में हिन्दू विवाह के लिये नियम बनाये गये है,सूर्य की आभा में जो किरणें सम्बन्धो के अन्दर अपना असर देती है वहां रात की कालिमा कितने ही प्रकास को प्रकट करने के बाद मिटाने की कोशिश की जाये खत्म नही होती है। देवताओं का दिन होता है रात तो केवल निशाचरों की होती है,कलयुग की यही विडम्बना कही जायेगी कि रात को शादी करने के लिये हिन्दू समुदाय को किस प्रकार से अपने समय के अभाव के रूप में प्रकट किया है। शादी करने के लिये भी वही समय निश्चित किया जाना चाहिये जो खुद के लिये सहूलियत वाला हो,लोगों को शादी पर बुलाने के लिये केवल आशीर्वाद समारोह रात को कर देना चाहिये जहां शादी के बाद लोग अपना अपना आशीर्वाद दे सकें,आजकल के अनुसार शादी के पहले स्टेज शो होता है और शादी के पहले ही घर वाले और बाहर वाले बिना ब्याही वधू को और बिना ब्याहे वर को आशीर्वाद देकर अपने उदर की शांति करके चले जाते है,और बाद में मंत्रों से उस जोडे को शादी के बन्धन में बांधा जाता है जो पहले ही शादी के रूप में लोक मान्यता को प्राप्त कर चुका है। 
  • शादी के बाद पति और पत्नी के घर वालों को तय कर लेना चाहिये कि शादी के बाद पति और पत्नी के बीच में एक समय सीमा में दूर रहने के लिये बाध्य होना पडेगा,उस समय सीमा में दूर रहने के लिये अगर पत्नी का कोई सम्बन्धी नही है तो वर को इस प्रकार का बन्दोबस्त करना चाहिये कि एक या दो माह के लिये एक वर्ष में दोनो दूर रह सकें,वैसे शादी के बाद पत्नी को केवल चार दिन के लिये ही अपने ससुराल में रहने दिया जाय,उसके बाद तीन महिने का अन्तराल देकर फ़िर भेजा जाये,उस समय पति और पत्नी दोनो कहीं भी हनीमून के लिये जा सकते है,और जैसे ही वापस आयें उन्हे फ़िर से एक माह के लिये अलग किया जाये,इस प्रकार से शादी के तीन साल तक ससुराल में कम ही रखा जाये,तो शादी आजीवन चलने से कोई रोक नही सकता है।
  • आज के जमाने से पति और पत्नी अगर अलग अलग नही रह सकते है तो उन्हे आपसी समझौतों से एक दूसरे से दूरी बनाकर चलना चाहिये,कम से आपसी सम्बन्धों के मामले में एक माह की और नही चल पाये तो एक सप्ताह की दूरी बनाकर अवश्य चलना चाहिये,इस प्रकार से आपसी आकर्षण का रूप बढता जायेगा,और शादी आराम से आजीवन चल सकती है।
  • शादी के बाद पति और पत्नी को अपनी अपनी शारीरिक शक्ति का भी ख्याल रखना चाहिये,शादी के बाद शरीर पर अचानक मानसिक दबाब बढता है,वह सम्बन्धो के मामले में भी और परिवार के मामले में भी,अति आकर्षण की वजह से काम भी रुकते है और शरीर भी थकता है,एक दूसरे की कमजोरी को रोकने के लिये बाहरी भोजनो से अरुचि बनानी चाहिये और शक्ति से पूर्ण भोजन को लेना उत्तम बात मानी जाती है,इसके लिये फ़्रेस दूध का सेवन जितना हो सके करना चाहिये,अन्यथा मज्जा बढाने वाली चीजों का सेवन करना चाहिये.यह बात पूरी तरह से सत्य है कि शरीर से ही मन जुडा है और शरीर कमजोर है तो मन अपने आप कमजोर होगा,वासनाओं की वृद्धि तब और बढ जाती है जब शरीर के अन्दर दम नही होता है और वह सीधा दिमाग पर असर देता है,पीजा और बर्गर खाकर शक्ति नही बढती है केवल उदर पूर्ति होती है।

कितना किसमें शील ?

पुराने जमाने में जब बारात लोग जाया करते थे तो देखा करते थे कि घरातियों ने कितना किसका सम्मान किया है कोई बाराती बिना भोजन के रह तो नही गया है,घराती मनुहार करने में नही थकते थे और बाराती मनुहार करवाने में पीछे नही रहते थे। जब बारात की विदा होती थी लोगों को नजर और सम्मान दिया जाता था,उस सम्मान में लडके के पिता और लडकी के पिता के छाती पान लगाने की प्रथा थी,दोनो समधियों के छाती में पान लगाकर गले मिलाया जाता था,यह बारात विदा होने के समय किया जाता था,और इस कार्य का मुख्य उद्देश्य दोनो समधियों के द्वारा किये गये रिस्ते में और दोनो पक्षों के बीच में हुये व्यवहारिक आदान प्रदान में कोई कमी रह गयी हो उसके लिये गले मिल कर शिकवा शिकायत दूर की जाती थी। पान का महत्व भी बहुत होता था,बिना पान के सम्मान कहां माना जा सकता है,पान को छाती से लगाने का मतलब भी बहुत गहरा होता था,पान के अन्दर सम्बन्धो में रंग लाने की अजीब क्षमता मानी जाती है,लेकिन आज पान की जगह पर गुटका का राज हो गया है पुडी फ़ाडी और मुंह में डाली आगे पीछे क्या होगा किसी को पता नही है। जब बारात विदा होती थी तो बहू की पालकी और बहू के उतारने चढाने के लिये वर के छोटे भाइयों को प्रयोग में लाया जाता था,उन्हे साहबोला कहा जाता था,साहबोला ही बहू को घर तक लाने की जिम्मेदारी निभाता था,बहू को रास्ते में पानी के लिये पूंछना,भोजन करवाना,तथा लैट्रिन बाथरूम करवाने की जिम्मेदारी साहबोला के ऊपर ही हुआ करती थी,वर और बधू को किसी वाहन से लाते वक्त एक साथ बिठाया जाता था,उसी समय बाराती अन्दाज लगा लिया करते थे कि बहू और लडके में कौन शारीरिक रूप से ह्रष्ट पुष्ट है,अगर वर बहू से कमजोर होता था तो उसके लिये वर के पिता से कह दिया जाता था कि इसे एक भैंस पिलानी जरूरी है,अगर बहू कमजोर हुआ करती थी तो कह दिया जाता था कि बहू की गोने की विदा तीसरी साल ही करनी है,उससे पहले विदा करवाने से बहू के जीवन को खतरा हो सकता है। बहू जब घर में आती थी तो कंकन छोरने की प्रथा भी हुआ करती थी,एक थाली में हल्दी मिले पानी को डाला जाता था उसके अन्दर एक आटे की मछली को बनाकर उसके अन्दर धागा बांध कर घर की भाभियां उस मछली को थाल में नचाया करती थीं और वर तथा वधू को उस मछली को तीर कमान से बेधने के लिये कहा जाता था,जो पहले उस मछली को तीर से वेधा करता था उसे ही बुद्धिमानी का दर्जा दिया जाता था,लोगों के अन्दर यह भाव पैदा हो जाता था कि बहू चालाक है या लडका चालाक है। इन बातों के बाद बहू को घर के कार्यों में नही लगाया जाता था,उसे तब तक घर के कार्यों से दूर रखा जाता था जब तक उसकी मुंह दिखाई चलती थी,समाज गांव और जान पहिचान वाले अपने अपने समय के अनुसार आया करते थे,सभी बहू की मुंह दिखाई किया करते थे,बहू को सुबह से लेकर शाम तक अपने को सजाकर रखना पडता था,कोई औरत जब घूंघट को उठाती तो बहू आंखे बन्द करके रखती थी,और जब वह औरत मुंह देख लेती थी तो तारीफ़ तो करती ही थी,कि बहू बहुत सुन्दर है,उसे मुंह दिखाई का नेग दिया जाता था जिसे व्यवहार माना जाता था,और किसी काफ़ी में उसे घर की औरतें लिख लिया करती थी,बाद में चर्चा भी होती थी कि अमुक की बहू को इतना व्यवहार दिया था,और अमुक ने व्यवहार सही लौटाया है या नही इस तरह से बहू की सुन्दरता की चर्चा काफ़ी समय तक होने से बहू के अन्दर भी स्वाभिमान आजाता था कि वह सुन्दर है और उसे अपनी सुन्दरता का ख्याल रखने के साथ घर के लोग जो उसे तारीफ़ दे रहे है,उसका ख्याल रख रहे है उनके लिये अपनी पूरी कोशिश करने के बाद उन्हे खुश रखा जाये। उसके बाद बहू को रोटी छुआने का कार्यक्रम हुआ करता था,बहू से ही उस दिन खाना बनवाया जाता था,सभी घर के बुजुर्ग उस दिन रोटी खाकर भोजन की तारीफ़ करने के बाद बहू को नेग दिया करते थे,और बाहर के लोग भी भोजन को किया करते थे तथा गांव समाज में उस भोजन की तारीफ़ की जाती थी,इस प्रकार से जब बहू की विदा होती थी तो उसे चौथी की विदा कहा जाता था,यानी बहू के आने के बाद चौथे दिन उसे अपने घर वापस जाना होता था। जब बहू अपने घर चली जाती थी तो पंडित से गौने की विदा का मुहूर्त निकलवाया जाता था,गौना कभी कभी तीन साल के बाद भी करवाया जाता था,इस बीच वर और वधू के बीच चिट्ठी पत्री से सम्पर्क चला करता था,और बीच में वर को वधू के घर या वधू को वर के घर आन जाने से सख्त मनाही होती थी,गौने की विदा तक एक दूसरे के लिये जो आकर्षण पैदा होता था वही सच्चा प्रेम माना जाता था,जब गौने की विदा होती थी तो तीन महिने तक या श्रावण के महिने तक ही विदा की जाती थी,क्योंकि पहली होली और पहला श्रावण बहू को अपने पीहर में ही बिताना होता था,उस समय भी एक दूसरे के आकर्षण की सीमा में बढोत्तरी हुआ करती थी। इस प्रकार से वर और वधू के बीच की दूरी एक समय सीमा के अन्दर रखी जाती थी,जितनी दूरी को बढाया जाता था उतना ही प्रेम आपस में पनपता था,और इसी दूरी के बीच में एक या दो सन्तान हो जाती थी जिससे वह आकर्षण फ़िर सन्तान की तरफ़ चला जाता था। घर के बडे बुजुर्गों के सामने बहू और लडका आपस में बात भी नही कर सकते थे,दिन के समय लडका और बहू किसी विशेष परिस्थिति के अलावा बात भी नही करते थे,जब बहू शाम को घर के सभी कार्यों से निपट जाती थी,तब वह लडके के पास जाती थी,इसी बीच लडके के अन्दर जो इन्तजार करने का प्रभाव होता था वह एक नयापन लेकर प्यार करने का इन्तजार माना जाता था,दोनो एक समय सीमा तक ही एक दूसरे के पास रहा करते थे,भोर होने से पहले बहू को सबसे पहले इसलिये जागना पडता था,क्योंकि उसकी जिठानिया और घर के अन्य सदस्य उसे सुबह ताने न मार पायें। इस प्रकार से चलने वाली वैवाहिक जिन्दगी बिना किसी रुकावट के चला करती थी,लडका या लडकी के अन्दर की कोई भी कमी अगर भयंकर नही होती थी तो समाज के सामने भी नही आती थी,कुरूप लडकी और लडके की भी शादी होती थी,और दोनो से जो सन्ताने होती थी वे बहू के अनुरूप ही हुआ करती थी,घर में सभी कार्यों के अलावा लिखाने पढाने के लिये भी अच्छी प्रथा हुआ करती थी लकडी की पाटी पर बच्चों को पांडु मिट्टी से अक्षर लिखना बताया जाता था,बच्चा आराम से सीख जाता था।

जमाना बदला सभी रीतिरिवाज बदले,आदमी के पास फ़ुर्सत नामकी चीज गायब हो गयी,उसके लिये जो भी करना होता है वह जल्दी से करने की कोशिश करता है। आज शादी पक्की होती है कल हो जाती है,परसों उसे तोड दिया जाता है,पांचवे दिन वह शादी का केश पारिवारिक न्यायलय में चला जाता है फ़िर शुरु हो जाता है तारीखों का खेल,और आधी अधूरी जिन्दगी इसी खेल के अन्दर गुजर जाती है,पारिवारिक न्यायालय कभी कभी जल्दबाजी भी करते है तो वन टाइम सैटिल मेंट करने के बाद तलाक कर देते है। इस तलाक के बाद स्त्री और पुरुष दोनो ही दुबारा से शादी करने के लिये तैयार हो जाते है। "शील" नामका जो गुण था वह इन बातों से स्त्री और पुरुष दोनों के अन्दर से गायब हो जाता है,जिस शील की रक्षा करने के लिये हर स्त्री का अधिकार होता है उस अधिकार को आज के समाज ने नजर अन्दाज कर दिया है। सबसे पहले लडकी के माता पिता को सोचना चाहिये कि उन्होने अपनी लडकी को पैदा किया है मान सम्मान से रहने की शिक्षा दी है,उस लडकी को अगर पारिवारिक जिम्मेदारियों के बोझ से दूर करने के बाद वैवाहिक जीवन से दूर कर दिया जायेगा तो वह कितना अच्छा होगा या कितना बुरा होगा। विवाह एक पवित्र बन्धन है,इस बन्धन के बाद पति और पत्नी को केवल काम सुख के लिये प्रयोग में लाया जाता है और पति पत्नी का सम्बन्ध केवल सन्तान के बल से अपने को पूरित करना होता है,एक लडकी का पिता किसी भी तरह से यह नही चाहेगा कि उसकी लडकी के साथ कई पुरुष अदालती या समाज का बल लेकर संभोग करें,जैसे एक तलाक लेकर दूसरी शादी करने के बाद एक ही लडकी कई मर्दों के साथ कानूनी रूप से वैवाहिक जीवन बिताये। जान बूझ कर जो लोग जिन्दा मक्खी को निगल रहे है उनके लिये शील को खत्म करने वाली बात ही मानी जा सकती है। एक पिता अगर अपने पुत्र के लिये दूसरी बहू को तलाशने का कार्य करता है तो उससे भी यही शील खत्म करने वाली बात को ही मान लेना चाहिये,अगर उसने अपने पुत्र की पहली शादी को तोड कर दूसरी शादी की है तो जो लडकी दुबारा घर में आयेगी वह घर की लक्ष्मी कैसे बन सकती है,जैसे उनके लडके ने किसी का शील तोडा है तो उनकी बहू का भी शील कोई दूसरा तोड चुका होगा। इस टूटे हुये शील के बहू या लडके से जो सन्तान आयेगी वह भी शील नामके शब्द को भी नही मानेगी,यह अप्रत्यक्ष रूप से बकरी पालने वाले रेवड जैसा हो गया,एक रेवड वाला अपनी बकरी को दूसरी रेवड वाले को बेच देता है,उस रेवड में जो बकरे होते है वे उसे भोगते है और जो बकरे पैदा होते है वे कसाई के लिये काटने के लिये काफ़ी होते है।

हर व्यक्ति के अन्दर नयापन लाने के लिये मन कल्पता है,उस नये पन को लाने के लिये ही पुराने समाज ने शादी और उसके बाद गौना फ़िर शादी विदा और समय मुहूर्त को प्रकट किया था,जब तक इन बातों की मान्यता रही तब तक समाज के अन्दर एकता भी रही और लोग अनीति से डरते रहे,आज कानून से अगर एक लडकी को कोई बलात्कार कर दे तो उसके लिये सजा कम से कम सात साल की होती है,वही लडकी अगर अपनी मर्जी से एक तलाक देकर दूसरी जगह अपनी शादी कर लेती है और एक मर्द के बाद दूसरे मर्द के साथ रहकर आराम से संभोग करती है तो क्या यह हिन्दू समाज की एकरूपता मानी जा सकती है,यह तो किसी भी वैदिक शास्त्र में नही लिखा है कि एक स्त्री कई मर्दों के साथ अपना जीवन केवल अपने नये पन को प्राप्त करने के लिये बिताये और वह हिन्दू की मान्यता में घर की लक्ष्मी कहलाये,इस प्रकार के कृत्य को साधारण भाषा में वैश्या वाला कृत्य ही कहा जायेगा जो तलाक देने और तलाक के बाद दूसरा विवाह करने के लिये अप्रत्यक्ष रूप से सभी के सामने है। उस नये पन के लिये लडकी के पिता और लडके के परिवार वालों को शादी विवाह एक भार रूप में नही देखकर सम्बन्ध के रूप में देखना सही है,इससे जो भी आगे की सन्तान होंगी वे कम से कम शील नामके इस शब्द को तो समझ पायेंगी जो उनके लिये मर्यादा और स्वच्छ सन्तति के लिये माना जायेगा।

गुरुवार, 25 नवंबर 2010

प्रकृति का बैलेंस

कहा जाता है कि जब अनेक राम पैदा हो जाते है तो रावण को भी जन्म लेना पडता है और अनेक रावण पैदा हो जाते है तो राम को भी जन्म लेना पडता है। जब खूब घास पैदा होने लगती है तो बहुत से हिरन पैदा हो जाते है और जब बहुत से हिरन पैदा हो जाते है तो शेर भी पैदा होने लगते है। इसी का नाम प्रकृति का बलैंस बनाना कहा जाता है,यह प्रकृति अपने बैलेंस को बनाकर चलती है,कोई कितनी ही मर्जी कर ले लेकिन यह अपना रास्ता नही छोडती है,जब जमीन पर भार बढ जाता है तो यह भूकंप पैदा करती है,जब जगह खाली हो जाती है तो जीवों को पैदा करती है,जो स्थान खाली होता है उसे भरती है और जो भरा है उसे खाली करती है। एक व्यक्ति जब धर्म की तरफ़ जाता है तो प्रकृति उसके अन्दर अहम को भी भरती है और जब अहम पैदा हो जाता है तो वह धार्मिकता को छोड कर आसुरी वृत्ति में जाने के लिये तैयार हो जाता है। जब वह धर्म से रहना चाहता है तो उसका ध्यान माया से जुडे लोगों में चला जाता है और जब वह माया में जाता है तो उसका ध्यान धर्म की तरफ़ चला जाता है,इस बदलने वाले प्रकृति के टेस्ट के कारण जीव अपनी अपनी करनी का फ़ल प्राप्त करता है। ग्रह नक्षत्र इस बात को अपनी अपनी प्रभाव देने वाली बात को बताते है और साधु सन्यासी लोग इसे ईश्वर की महिमा बताते है साधारण लोग इसे अपनी अपनी करनी का फ़ल बताते है,जो लोग कुछ नही जानते वे अपने को जैसे लोगों और प्रकृति के द्वारा चलाया जाता है उसी प्रकार से चलते जाते है और जो भी कार्य उनके लिये पहले से तय किया गया है उसे पूरा करते है और अपने रास्ते से निकल जाते है।

भिन्नता को देखने के लिये अपने शाकाहारी और मांसाहारी जीवों को ही नही देखना पडता है यह वृत्ति मनुष्य के अन्दर भी मिलती है,कितने लोग केवल घास पात खाकर अपने जीवन को चलाना जानते है और कितने लोग चिकन और मटन से ही अपने उदर को भरने में विश्वास करते है। कोई दूध पीकर पहलवानी और शरीर के बल को प्रदर्शित करता है तो कोई शराब पीकर दस मिनट में ही अपने आतंक को प्रदर्शित करने से नही चूकता है। कोई परायी बहिन बेटी को अपनी बहिन बेटी समझता है तो कोई सभी को कामुकता की नजर से ही देखता है,अगर सभी की समान द्रिष्टि हो जाती तो कोई न्याय करने की जरूरत नही पडती,सभी अपने अपने रास्ते से चले जा रहे होते और कोई युद्ध नही होता कोई मारकाट नही होती और कोई एक दूसरे से जलन नही रखता,लेकिन इस बात में भी प्रकृति को दिक्कत आने लगती,जब एक दूसरे को जलन नही होती तो वह आगे ही आगे बढते जाते,एक प्रकार की मानसिकता होती तो वे आसमान में सीढियां भी लगा चुके होते। या तो एक ही मानसिकता से सभी बढ चढकर खुश हो गये होते या एक ही मानसिकता से समाप्त भी हो गये होते। आखिर में इस प्रकृति को इतना क्यों करना पडता है,क्यों वह जीव को पैदा करती है और उसे पालती है उसकी रक्षा करती है और जरा सी देर में कोई न कोई कारण पैदा करने के बाद उसे समाप्त कर देती है,या तो वह पैदा ही नही करे,और पैदा करे तो मारे नही,परेशान नही करे,लेकिन इतनी बात को समझने के लिये प्रकृति के पास समय कहां है उसे तो कुछ करना है,जो करना है हमें भी पता नही है,जब हम जमीन के नीचे से कोयला और पेट्रोल आदि निकालते है तो वैज्ञानिक कहते है यह सब जीवांशो के द्वारा ही सम्भव है,अन्यथा जमीन के नीचे कोयला कैसे बन गया,जहां जहां कोयले की खाने है वहां वहां पूर्वकाल में बडी बडी बस्तियां रही होंगी,बडे बडे जंगल रहे होंगे,वे किसी न किसी कारण से समाप्त हो गये और उनके अवषेश कोयला या पेट्रोल के रूप में नीचे रह गये,वे ही मनुष्य निकाल निकाल कर जलाने और शक्ति के रूप में प्रयोग करने के लिये अपना रहा है। समुद्रों के नीचे भी पेट्रोल और कोयले की खाने है,मीलों गहरे पानी के नीचे भी पेट्रोल की खोज की गयी है और मनुष्य वहां से भी पेट्रोल और खनिज निकालने के लिये प्रयास रत है।

यह जमीन की मिट्टी जो देखने में पत्थर लगती है बालू लगती है चिकनी मिट्टी लगती है,भुरभुरी लगती है दोमट लगती है लाल पीली काली हरी सभी तरह की मिट्टी दिखाई देती है यह कोई साधारण वस्तु नही है,यह अटल मिट्टी है इसके अन्दर से जो चाहो प्राप्त कर सकते हो,लेकिन प्राप्त करने की कला होनी चाहिये,जैसे इस मिट्टी से मीठा रस पीना है तो पहले इसके अन्दर गन्ना बोया जायेगा,और जब इस मिट्टी से चरपरा कुछ खाना है तो मिर्ची बोयी जायेगी और एक प्रकार की मिट्टी से ही मीठा और चरपरा दोनो प्रकार का स्वाद पैदा हो जायेगा,इसे अगर वैसे ही चाखो तो कैसी भी नही लगती है। इसी मिट्टी में गंधक है इसी में पारा है इसी में अगरस है इसी में मगरस है और जब इन्हे तपा दिया गया तो इसी मिट्टी में सोना भी बना है,मगरस हटा दिया तो लोहा ही रह गया,एक सौ उनसठ तत्व मिट्टी के सोना बना देते है तो एक सौ अट्ठावन तत्व लोहा ही रहने देते है। इस मिट्टी को गीला कर दो और सही तापमान में रखो पता नही कहां से आकर इसके अन्दर कोई न कोई जीव या वनस्पति अपने आप पैदा होने लगेगी,कोई इस मिट्टी को नही जाने लेकिन धरती के अन्दर रहने वाले जीव तो इसे जानते ही है। जो इस धरती के अन्दर जीव रहते है उन्हे ऊपर का सभी कुछ पता होता है,अगर समझना है तो कभी चीटी को देखो,जैसे ही पानी बरसने वाला होता है वह समझ जाती है कि उसके बिल में पानी आयेगा और वह अपने अंडे बच्चे लेकर सुरक्षित स्थान की ओर भागलेती है और वह जाती भी वहीं है जहां पानी किसी तरह से नही पहुंचेगा,आदमी के पास तो बैरोमीटर है लेकिन चीटी के पास कौन सा बैरोमीटर है ? आदमी के पास बुद्धि है लेकिन सेंस नही है,वह अपनी बुद्धि से बना तो बहुत कुछ सकता है लेकिन उसे यह सेंस नही है कि उस बने हुये का आगे प्रयोगात्मक पहलू सकारात्मक होगा या नकारात्मक.

मनुष्य की पसंद तो खुशबू होती है लेकिन वह उस खुशबू को बदलकर बदबू में परिवर्तित कर देता है,वह भोजन तो स्वादिष्ट खाता है,लेकिन पाखाना बदबू वाला ही करता है,आदमी का पाखाना किसी काम का नही है जबकिएक अदनी से जीव गाय का पाखाना कम से कम लीपने पोतने और जलाने के लिये छैने तो बनाने के काम आता है,मनुष्य का शरीर भी किसी काम का नही है,वह मन्दिरों में जाता है तो अपने को पवित्र बताता है,मस्जिद में जाता है तो अपने को पवित्र बताता है,और जब उसकी अन्तगति होती है तो उसे लोग छूने से डरते है,और कोई भूल से छू भी लेता है तो उसे नहाना पडता है और कई और भी क्रिया कर्म करने पडते है,किस काम का है यह मनुष्य ?

सोमवार, 22 नवंबर 2010

चलता फ़िरता दर्द

यह शरीर पंच तत्वों से बना है,जब हमने जन्म लिया था तब जो ग्रह अपने अपने तत्वों को जहां पर स्थापित किये थे वहीं पर उन तत्वों का वर्गीकरण स्थापित हो गया था,लेकिन गोचर करने के साथ जो ग्रह अपना अपना तत्व शरीर में घुमाने की क्रिया से प्रभावित करते है उन्ही तत्वों से शरीर के प्रति कारण और निराकरण सामने आने लगते है। शरीर में दो कारक अपने अपने लिये निरन्तर कार्यरत होते है,एक तो गुरु की हवा जो सांसों के रूप में अपना कार्य करती है,और दूसरा शरीर के अन्दर का खून जो लगातार अपनी क्रियात्मक शक्ति के द्वारा अपने को पूरे शरीर में निरंतर गतिमान बनाकर चलता रहता है,खून का कारक मंगल होता है,लेकिन खून के पतले और गाढे होने का पता चन्द्रमा की स्थिति के अनुसार माना जाता है,खून की गति भी गुरु और चन्द्र पर निर्भर करती है,जितनी तेज सांसों का चलना होगा उतनी तेज गति से खून की चाल होगी,यह अन्दाज अक्सर हम कठिन मेहनत करते वक्त या भागते दौडते वक्त लगा लेते है। शरीर में गर्मी की मात्रा अधिक हो जाती है तो चन्द्रमा शनि की सहायता लेता है,और पानी की मात्रा को त्वचा की तरफ़ धकेल देता है,त्वचा से पानी की मात्रा पसीने के रूप में बाहर आती है और बाहरी हवा के संसर्ग से वह अधिक शीतलता को प्राप्त करती है,जिससे शरीर के अन्दर की गर्मी शांत होती है। इसी खून के अन्दर जब राहु का प्रभाव मिलता है तो खून के अन्दर कई तरह के कैमिकल मिल जाते है और वह कैमिकल या तो हवा के द्वारा शरीर में प्रवेश करते है या फ़िर पानी के या भोजन के द्वारा शरीर में मिलते है,लेकिन जिन लोगों का गुरु अष्टम में या वृश्चिक राशि में वक्री होता है उन के लिये यह गन्दे कैमिकल अपान वायु के शरीर में वापस चढने से भी खून के अन्दर मिल जाते है। यह उन लोगों के साथ जरूर होता है जो जल्दी जल्दी से यात्रा वाले कार्यों से जुडे होते है,या उनका कार्य बैठे बैठे सोचना अधिक होता है,राहु जब गोचर से चन्द्रमा के साथ विचरण करता है तो लोगों के अन्दर यह अपने रूप में मानसिक चिन्ताओं को प्रदान करता है,इस प्रकार से चिन्ता करने से दिमागी गति अस्थिर हो जाती है और भोजन कब करना है पानी कब पीना है,कब घूमने जाना है कब सोना और कब जगना है इस प्रकार से व्यक्ति की सभी दैनिक क्रियायें अधिक अस्त व्यस्त हो जाती है,इस कारण से जो भोजन किया जाता है वह या तो पच नही पाता है और एक जगह पर आंतों में इकट्ठा रहकर सडने लगता है,सडन से जो अपान वायु बनती है वह सही तरीके से पास नही हो पाती है और शरीर की वायु चूसक गृन्थियों से खून के अन्दर आक्सीजन प्रदान करने वाले सिस्टम के साथ मिल जाती है,इस प्रकार से वह खून जहां जहां से गुजरता है वहां पर वह नशों के अन्दर या तो रुकावट देता है या नशों के अधिक या कम फ़ैलाव के कारण दर्द उत्पन्न करता है,जब यह वायु विभिन्न स्थानों से गुजरती है तो विभिन्न स्थानों पर दर्द होता है। एक स्थान पर रुक कर दर्द होता है तो उसकी पहिचान होती है लेकिन अलग अलग दर्द कभी कभी कहीं और कभी कहीं होता है तो व्यक्ति की दिन चर्या बिगड जाती है उसके लिये चाह कर भी कार्य करना दूभर हो जाता है। यह क्रिया बिगडे हुये जुकाम में भी देखी जाती है,जैसे चन्द्र शनि की युति में शरीर का पानी कफ़ के रूप में जमा हो जाता है और अक्सर जिसकी कुण्डली में केतु कर्क राशि का होता है उनकी कुंडली में जब भी शनि कर्क वृश्चिक और मीन राशि में होता है तथा शनि का जन्म से या गोचर से वृष कन्या या मकर राशि में होता है तो इस प्रकार के लोगों का जुकाम किसी न किसी कारण से जरूर बिगडता है और उस कफ़ के एक स्थान पर जमा हो जाने से या गर्म दवाइयां लेने से अधिक एन्टीबायटिक दवाइयों के प्रयोग से भी कफ़ जमा हो जाता है उस कफ़ के जमा होने से शरीर की वसा कभी किसी स्थान पर और कभी किसी स्थान पर अपनी जकडन को पैदा करती है तब भी जातक के शरीर में कभी कहीं और कभी कहीं दर्द पैदा होता है,अक्सर चन्द्र शनि की युति में केतु के प्रभावित होने के समय शरीर के जोड दर्द करते है और हाथ पैरों के जोड दर्द करने लगते है।

जैस कोई बीमारी बनी है तो बीमारी का इलाज भी बना है,इस संसार में जितनी भी बीमारी है उनका इलाज भी उतना ही है,कोई भी बीमारी लाइलाज नही है,लेकिन पहिचान करने वाले जब बीमारी को नही पहिचान पाते है या बीमारी वाला व्यक्ति अपने इलाज के लिये किसी दूसरी बीमारी को दूर करने वाले डाक्टर के पास चला जाता है तो वह डाक्टर अपनी जानने वाली बीमारी के अनुसार ही दवा देना शुरु कर देता है,और जो बीमारी थी उसका इलाज तो हो नही पाया दूसरी बीमारी का इलाज लेने के दौरान जो साल्ट शरीर में लिये जाने लगे उनसे दूसरी और बीमारियां पैदा होने लगी,इसी लिये कहा जाता है कि ज्योतिष में योग,अस्पताल में रोग और मन्दिर में भोग को पहिचाने बिना तथा भेडचाल से नही चलना चाहिये। योग को पहिचाने बिना कार्य को किया जायेगा तो जरूरी है कि कार्य पूरा होगा नही और होगा भी तो उसका फ़ल जो मिलना चाहिये वह नही मिल पायेगा,उसी प्रकार से अस्पताल में टीबी का इलाज होता है और निमोनिया वाला मरीज वहां पहुंच जायेगा तो टीबी वाला डाक्टर निमोनिया की बजाय टीबी की बीमारी का इलाज करना शुरु कर देगा,उसी प्रकार से शिवजी के स्थान पर लड्डू का भोग लगाने के बाद सोचा जाये कि मानसिक स्थिति सही हो जायेगी,यह तो सम्भव नही है,लड्डू तो गणेशजी के स्थान पर चढाये जाते है,मानसिक स्थिति बजाय सुधरने की और नकारात्मक हो जायेगी।

राहु का मन्गल और चन्द्रमा पर जब गोचर हो तो जातक को जितना हो सके अपनी दैनिक क्रियाओं पर ध्यान देना जरूरी होना चाहिये,उसे अकेला बैठना और सोचते रहना बहुत ही हानिकारक होगा,उसे अपने समय से जगना चाहिये जब भी समझे कि उसका दिमाग चिन्ताओं में घिर रहा है उसे फ़ौरन किसी ऐसे काम को करना चाहिये जिसके अन्दर शारीरिक मेहनत का प्रयोग किया जाता हो,उसे रास्ता चलते समय भी ध्यान रखना चाहिये कि उसका ध्यान आसपास की वस्तुओं की तरफ़ या अपनी ही मानसिक सोच के अन्दर तो नही है,अक्सर इसी सोच के कारण कभी कभी अपने में ही मस्त रहने और बाह्य जगत की तरफ़ ध्यान नही होने से बडे बडे एक्सीडेंट हो जाते है,इसी बात के लिये और एक बात भी मानी जाती है कि जब राहु का गोचर मंगल या चन्द्र के साथ होता है तो वह बडे बडे अच्छे या बहुत ही बुरे काम भी करवा देता है,जैसे राहु के साथ मंगल का गोचर होने के समय या दशा अन्तर्दशा के समय खून के अन्दर उबाल का आना शुरु हो जाता है,जो व्यक्ति हमेशा शान्त रहने वाला होता है उसके अन्दर भी खून में अक्समात उबाल आजाता है,या तो वह गाली गलौज पर उतर आता है अथवा वह मारपीट या हत्या तक करता देखा जा सकता है। अपने खानपान नींद और दैनिक कार्यों पर अधिक ध्यान देने से गुरु मन्गल चन्द्र या शनि के अन्दर राहु का प्रभाव अपना असर नही दे पायेगा। गोमेद राहु का रत्न है और राहु की दिक्कत में केतु का और केतु की दिक्कत में राहु का उपयोग शर्तिया लाभ देने वाला होता है,लेकिन केतु को अकेला प्रयोग नही किया जाता है,जैसे लहसुनिया को प्रयोग में लाना है तो उसे पीले रंग में या पीले रंग की धातु में ही पहिनना चाहिये,गोमेद को भी पहिनना है तो पीले रंग की धातु में केतु की मानसिकता जैसे गोमेद में बने गणेशजी को पहिना जा सकता है।

रविवार, 21 नवंबर 2010

मौत कब और कैसे ?

मृत्यु अटल सत्य है,संसार में जो पैदा हुआ है वह मौत के मुँह में तो जायेगा,उसे कोई बचा नही सकता है,जल जल में चला जायेगा,आग आग में मिल जायेगी,मिट्टी मिट्टी में मिल जायेगी,हवा हवा से जाकर मिल जायेगी,लेकिन जो बचेगा वह आत्मा के नाम से पुकारी जाने वाली हस्ती। ज्योतिष के अनुसार आठवें भाव को मौत का भाव जाना जाता है,और इसी भाव से अक्सर जीवन की गति को प्रकट किया जाता है,लेकिन आठवें भाव को भी बल देने वाले तो और भाव माने जाते है,चौथा भाव भी आठवें भाव से अपनी मान्यता को जोडता है और बारहवां भाव भी आठवें भाव से सकारात्मक रूप से जुडा है। इन तीन भावों के द्वारा अपनी जीवनी पूर्ण करने पर ही वास्तविक मृत्यु होती है और जीव की गति अन्य जीवन की तरफ़ पलायन कर जाती है,फ़िर से जीवन चक्र शुरु हो जाता है,वह हो चाहे किसी भी रूप में। जीवन को बरसात के पानी की तरह मानना एक अच्छा उदाहरण है,समुद्र में पानी की स्थिति है और गर्मी और हवा के सहारे वह भाप के रूप में आसमान में उठता है,जहाँ भी उसकी प्रकृति के अनुसार जलवायु मिलती है वह बरस जाता है। फ़िर किसी स्थान पर बरस कर या तो धरती के अन्दर चला जाता है और धरती के अन्दर बहने वाले स्त्रोतों से नदियों में और फ़िर जाकर समुद्र मे मिल जाता है या सीधा बहकर नदियों के द्वारा जाकर सागर में मिल जाता है।

मौत को बारह प्रकार से माना जाता है,पहला शरीर की मौत से दूसरा भौतिकता की मौत से तीसरा प्रदर्शन की मौत से चौथा मानसिक रूप से मृत पांचवां मन्दबुद्धि होकर जिन्दा रहकर भी एक लाश की तरह शरीर को ढोने वाली मौत और छठवा किसी प्रकार से बडी बीमारी से ग्रसित होकर अस्पताल या घर के किसी कोने में पडे रहकर मौत से भी बदतर जीवन जीने वाली बात सातवां अपने को दुनिया के सामने असमर्थ मानकर और अपने विरोधी का वह चाहे व्यक्ति हो कार्य हो या व्यवस्था के सामने असहाय हो जाना आठवां हमेशा किसी न किसी बात में अपमानित होते रहना मनुष्य रूप में भी जन्म लेकर जानवरों जैसे माहौल में रहना घोर अघोर को भोजन के रूप में ग्रहण करना और घर की बजाय शमशान या जंगलों में रहना नवें प्रकार में जिस पिता या समाज या धर्म में जन्म लिया है उसका परित्याग करके रहना अपने देश और समाज को छोड कर दूसरे देश और समाज की व्यवस्था को संभालना अपने देश और समाज की व्यवस्था की बुराई करना और पितरों जिन्होने इस शरीर को प्रदान करने के लिये पहले से अभी तक की व्यवस्था को कायम रखा उसे भूल जाना दसवें प्रकार की मौत में कार्य को करने की बुद्धि होने के बावजूद भी कार्य नही करना कार्य करने का बल नही होना और कार्य होने पर भी कार्य को नही करना ग्यारहवीं तरह की मौत में अपने ही लोगों के सामने लाचार हो जाना अपने द्वारा जीवन यापन के लिये कोई प्रयास नही करना जो संगी साथी है उनके द्वारा जगह जगह पर नीचा देखना अपने ही भर के सदस्यों में जाकर अनबन कर लेना तथा बारहवीं प्रकार की मौत किसी अनाथालाय में पलना और किसी की गोद चले जाना अपने को दुनिया के मोह से दूर कर लेना और सन्यास ले लेना आजीवन कारावास जैसी सजा को भुगतना आदि मौतें मानी जाती है।

ग्रह के अनुसार अपनी अपनी मौत देने के कारण पैदा होते रहते है,वैसे तो इस शरीर को चौबीस घंटे के अन्दर इक्कीस हजार छ: सौ बार जिन्दा और मरना पडता है,लेकिन जन्म के समय जब तक माता की गोद में रहते है तो दूसरे के सहारे ही रहते है किसी प्रकार की जोखिम से अपने को बचा नही सकते है समाज और व्यक्ति की सहायता और दया पर पलते है जब तक दिमाग से अपने को बचाने और अपने को सुरक्षित रखने के लिये कारण नही बनाते तब तक एक जीवित की संज्ञा में नही माना जा सकता है। सच्ची जिन्दगी वही होती है जो अपने पीछे वालों को अपने आगे वालों को सही मार्ग सही व्यवस्था और सही जीवन जीने के लिये उनका हक देकर जिन्दा रहा जाये। वैसे शनि को सबसे अधिक जीवन देने वाला मानते है,लेकिन जब शनि भी चन्द्रमा से दूसरे भाव में गोचर करता है तो व्यक्ति को मानसिक रूप से आहत कर देता है उसके सभी पराक्रम समाप्त हो जाते है और जिनसे भी वह अपने कार्यों के लिये कहता है या जिन कार्यों को करता है वे सभी अपने अपने स्थान पर बर्फ़ की तरह से जम जाते है कोई भी जीवन की गति में पूरक नही होता है,वह समय भी एक मौत से कम नही होता है,उसके बाद शनि जब भी सूर्य से दूसरे भाव में होता है तो लोगों के अहम का शिकार होना पडता है जिसे देखो वही रौब गांठ कर चल देता है समर्थ होते हुये भी लोगों की राजनीति में रहकर काम करना पडता है और अपने तरह से कार्य को करते ही कोई न कोई आक्षेप लगना शुरु हो जाता है तो वह भी मौत से कम नही होता,जब तक प्राणी स्वतंत्र रूप से कार्य करने का अधिकारी नही है तब तक उसे कैसे जीवन रखने के लिये माना जाये,जीवन का वास्तविक अर्थ वही है जो कि व्यक्ति खुद की बुद्धि से खुद के बाहुबल से खुद के विचारों की स्वतंत्रता से जिन्दा रह सके।

अक्सर कहा जाता है कि जिसका लगनेश चन्द्रमा होता है उसको जब भी जन्म के शनि से और गोचर के शनि से चन्द्रमा को दूसरे भाव में आना पडता है उसे किसी न किसी प्रकार का मानसिक क्षोभ पैदा हो ही जाता है। लेकिन उसे जिस प्रकार के क्षोभ मे आना पडेगा वह शनिके भावानुसार देखना पडेगा,अगर शनि मकर राशि का है तो उसे जीवन साथी की बातों और व्यवहारों से और शनि अगर बारहवें भाव में बैठा है तो उसे अन्जान लोगों और जेल आदि की प्रताणनाओं से क्षोभ पैदा होगा। महिने में सवा सात दिन तो चन्द्रमा को शनि के फ़ेरे में आना ही होगा,इसी लिये कर्क राशि वाले अधिक भावुक होते है,और अपनी भावनाओं के अनुसार अपने में ही अपने को समेटे रहते है।

मिथुन राशि को केवल शरीर की मौत से डर लगता है उसे मान अपमान क्षोभ आदि से कोई शिकवा नही होता है,कारण वह कठोर के सामने मुलायम और मुलायम के सामने कठोर बनने में देर नही लगती है। जब भी कोई गहरी बात आती है तो हल्की बात करने लगते है और हल्की बात के सामने गहरी बात करने लगते है अपनी चित्त और पट दोनो होने के कारण तथा बातूनी स्वभाव होने अपने घर की बात किसी को नही बताने और दूसरे के घर की बातो को आराम से अपने प्रयासों से प्राप्त करने में चतुर होने के कारण अपमानित होने पर भी अपनी बातूनी आदत से अपने को समझा लेते है,जहां पर कोई जोखिम का काम आता है वहां से दूर भाग लेते है,इन कारणों में एक ही बात को मुख्य माना जाता है कि उनकी चौथे भाव की गरिमा को बुद्ध कायम रखता है और अष्टम भाव की गरिमा को शनि तथा बारहवे भाव की गरिमा को शुक्र कायम रखता है।

मौत ग्रह की होती है मौत कभी जीव की नही होती है जीव तो चराचर जगत में हमेशा से हमेशा के लिये मौजूद है। पाराशर का नियम भी है कि हर भाव का बारहवां भाव उसका विनाशक होता है। धन की मौत शरीर देता है,प्रदर्शन की मौत धन देता है,सुख की मौत प्रदर्शन से होती है,विद्या और परिवार की मौत खुद के सुखी रहने से होती है,कर्जा दुश्मनी बीमारी की मौत विद्या और परिवार के द्वारा मानी जाती है,वैवाहिक सुख और जीवन साथी की मौत कर्जा दुश्मनी बीमारी और दासत्व भावना से होती है,रिस्क लेने वाले कार्यों के अन्दर खुद को जोखिम में ले जाने वाले कारणों की मौत जीवन साथी और साझेदार के द्वारा होती है,धर्म भाग्य और सामाजिक सुख और मर्यादा की मौत अपमान्जोखिम धर्म परिवर्तन और सामाजिक व्यवस्था के अन्दर विदेशी मान्यताओं को शामिल करने से होती है,कार्य की मौत धर्म और भाग्य के सहारे चलने से मानी जाती है,मान अपमान और सामाजिक संस्कार के चलते कार्य नही किये जा सकते है,मित्रता की मौत और बडे भाई का अपमान पिता की औकात को अपना लेने से होती है और अधिक धन की चाहत तथा दूसरों से अधिक जुडना मानसिक शांति और आगे बढने के कारणों से मौत का कारक माना जाता है।

कन्या राशि के कार्य

कन्या राशि का आस्तित्व सेवा वाले भावों से लिया जाता है और जिसका नाम भी कन्या राशि से शुरु होता है वह सेवा के किसी न किसी कार्य से जुडा होता है। कन्या राशि का प्रभाव एक प्रकार से कर्जा दुश्मनी बीमारी इन तीन कारणॊं वृहद रूप में परिभाषित करता है। इस राशि के अन्दर जो भावना सांसारिक रूप से सामने आती है वे इस प्रकार से है,सार्वजनिक रूप से लोग जब भी किसी खानपान से सम्बन्धित कारकों का फ़ायदा लेना चाहते है तो उन्हे कन्या राशि वालों का ख्याल ही बहुत अच्छी तरह से आता है,जब किसी सार्वजनिक कार्य के लिये कोई उपयुक्त व्यक्ति की तलाश होती है तो कन्या राशि सबसे बेहतर राशि है,स्वास्थ्य सम्बन्धी देखभाल के लिये कन्या राशि की उपयोगिता है,सशस्त्र सेवाओं में भी कन्या राशि वाले व्यक्ति काफ़ी उपयोगी माने गये है और हालत को देखकर कार्यवाही करने के लिये अपने को आगे रखते पाये गये है,श्रम सम्बन्धी चाहे जैसे कार्य हों जो शारीरिक और दिमागी श्रमों से सम्बन्ध रखते है कन्या राशिकी उपयोगिता आराम से पहिचानी जा सकती है.कही भी मरीज की देखभाल हो या घर परिवार में किसी अंगहीन व्यक्ति की सेवा वाला कार्य हो,किसी असहाय की पालना हो या किसी सामाजिक संस्था में किसी बडे कार्य जो अक्समात सहायता के लिये जाने जाते हों वहां भी कन्या राशि अपने करतब को दिखाने के लिये सामने मानी जाती है। किराया लेने या देने वाली बातो किराये से कोई कार्य करवाने या किराये से करने वाली बात कन्या राशि इन कार्यों में बेहतर सफ़लता की तरफ़ आगे पडती है,जब किसी दवाई की दुकान पर काम करने के लिये कर्मचारी की आवश्यकता हो या दवाई की दुकान पर नौकरी करने की आवश्यकता हो वहां भी कन्या राशि का मूल्य बहुत बढ जाता है,कोई भी प्रयोगशाला हो और उसके लिये अटेन्डेन्ट रखने की बात हो या प्रयोगशाला वाले अन्य कार्य हो कन्या राशि अपना आस्तित्व दिखाने से पीछे नही रहती है। किसी होटल में वेटर का कार्य हो तो जो कन्या राशि के लोग है वे इस कार्य को करने के लिये उत्तम माने जाते है,दांतों की चिकित्सा में कन्या राशि वाले लोग जितने सफ़ल होते है उतने किसी अन्य राशि के नही माने जाते है,वे बडी सावधानी से दंत पीडा को हरने का कार्य करते है और वृश्चिक राशि वाले की तरह केवल उखाडकर पीडा दूर करने के फ़ेबर में नही रहते है। जब किसी से खाना और दैनिक आहार विहार के बारे में राय लेनी हो तो केवल कन्या राशि वाले ही इस काम को आसानी से कर भी सकते है और आपकी इस समस्या को सुलझा भी सकते है। भोजन को कैसे गुणवत्ता में लाया जा सकता है,भोजन अगर फ़ालतू बच गया है उसके लिये क्या करना है जो वह भोजन उपयोगी बन जाये और फ़ालतू में बेकार होकर कचडे में नही जाये इसके लिये भी कन्या राशि वाला व्यक्ति अपने सुझाव को बहुत ही उत्तम तरीके से देगा। पालतू जानवरों को शिक्षा देने के लिये अगर कन्या राशि वाले व्यक्ति अपनी औकात को समझें तो वह बडे आराम से पालतू जानवरों को कार्य करने वाले जानवर के रूप में बना सकते है। आग बुझाने के कार्यों को और आग से सम्बन्धित ज्ञान को कन्या राशि वाले लोग बडी आसानी से समझ सकते है। पुलिस के कार्य भी कन्या राशि के लिये उत्तम फ़लदायक होते है,और पुलिस में भी कन्या राशि का व्यक्ति कार्य कर रहा है तो अपनी सेवा की भावना से अपने को आगे बढाता चला जायेगा,वह किसी भी अफ़सर के नीचे रहकर कार्य कर सकता है और अपनी वाहवाही से आगे से आगे बढता चला जायेगा वैसे भी पुलिस शब्द कन्या राशि शब्द है,कन्या राशि वाले एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाने और दुबारा से अपने को बसाने में बहुत ही सक्षम होते है अन्य राशि वाले एक बार किसी अन्जान स्थान पर जाकर बसने में हिचकिचायेंगे भी लेकिन कन्या राशि वाले व्यक्ति अपने को कहीं भी एडजस्ट कर सकते है। कन्या राशि वाले अगर पालतू जानवरों की दुकान कर ले और पालतू जानवरों से सम्बन्धित भोजन दवाइयां आदि बेचने का कार्य कर लें तो भी वे बडी आदमी बहुत ही जल्दी बन सकते है। जिन स्थानों में असहाय लोगों की सेवा की जाती है जो लोग अपने को बेसहारा मान कर बैठे होते है उन लोगों के लिये भी कन्या राशि वाले लोग बहुत ही आराम से कार्य करने के लिये माने जाते है और उनसे असहाय लोग खुश भी रहते है। अक्सर कन्या राशि वाले लोग साफ़ सफ़ाई और देखरेख के काम मे भी अपनी योग्यता का अच्छा परिचय दे सकते है,जहां भी सेवा भावना का काम होता है वहां अपना कार्य आसानी से दे सकते है। अक्सर इस राशि वाले बैंक और जमा धन की सुरक्षा वाले कार्यों को बहुत ही अच्छी तरह से कर सकते है,तथा अपने व्यवहार से अच्छे से अच्छे ग्राहकों की भीड अपनी बैंक में इकट्ठी करने की योग्यता रखते है। जो लोग फोन से परामर्श देने का काम करते है और फ़ोन से अपनी सेवाओं को देते है उनके लिये भी कन्या राशि वाले व्यक्ति बहुत ही अच्छा कार्य कर सकते है। अक्सर कन्या राशि वाले लोग श्रम संगठनों को भी इकट्ठा करने और उनसे श्रमिकों के लिये उत्थान करने वाले कामों को कर सकते है। नगरपालिका वाले कार्यों और गलियों की साफ़ सफ़ाई जमा पानी को निकालने के कार्य बीमारियों से बचाने के लिये किये जाने वाले कार्य भी इस राशि के लोग आसानी से कर सकते है।

शनिवार, 20 नवंबर 2010

शनि कर्म का कारक है

शनि का नाम सुनते ही अच्छे अच्छे के दिमाग में भय भर जाता है,शनि कर्म का कारक है,कर्म करने के लिये शनि अपनी पूरी ताकत देता है,कितना ही आलसी व्यक्ति हो शनि अपने अनुसार वक्त पर कर्म करने के लिये अपनी ताकत को दे ही देता है। व्यक्ति को शनि जमीनी ताकत का बोध करवाता है,कैसे जमीन से उगा जाता है और उगने के बाद समय के थपेडे किस प्रकार से खाये जाते है,तब जाकर किस प्रकार से कर्म की कसौटी पर उसे खरा उतरना पडता है। शनि के तीन रूप माने जाते है और तीनो रूपों को जन्म कुंडली के अनुसार परखा जाता है। शनि मार्गी होता है तो सम्बन्धित भाव के कार्य वह पूरे जीवन करवाता रहता है,चाहे वह अच्छा हो या बुरा कर्म तो मनुष्य को करने ही पडेंगे,वह गोचर से भी जिस भाव में प्रवेश करेगा,जन्म कुंडली के भाव के अनुसार ही अपनी शिफ़्त को प्रदान करेगा। मार्गी शनि शारीरिक मेहनत करवाता है और वक्री शनि दिमागी काम करवाता है,दिमागी कार्य करने के लिये वह अपने फ़ल भावानुसार ही देता है। व्यक्ति को अगर कहीं शारीरिक मेहनत करने के अवसर आते है और वह अपने द्वारा शारीरिक मेहनत करने के लिये उद्दत होता है तो वह शारीरिक मेहनत के अन्दर असफ़लता देता है,लेकिन दिमागी मेहनत के अन्दर अपने बल को प्रदान करता रहता है। उसी प्रकार से अगर शनि कुंडली में मार्गी है,और व्यक्ति अगर दिमागी मेहनत करने के कारण कही भी प्रस्तुत करता है तो उसे सफ़लता नही मिलती है। लेकिन वह अपने अनुसार शारीरिक मेहनत को करने के बाद सफ़ल होता जाता है। शनि अस्त का प्रभाव अपने में बहुत महत्व रखता है,जन्म स्थान का शनि अगर अस्त है तो वह गोचर से जिस भी भाव में प्रवेश करेगा,उस भाव के जन्म के भाव से सम्बन्धित कार्यों को बन्द कर देगा,चलते हुये कार्य बन्द होने के कारण मनुष्य को बैचेनी हो जाती है,वह सोचने लगता है कि उसके द्वारा कोई भूल हुयी है और उसी भूल से उसका कार्य बन्द हुआ है,लेकिन जैसे ही शनि अपने समय के अनुसार आगे बढेगा वह बन्द किये गये कार्य को शुरु कर देगा और आगे के कार्य बन्द कर देगा,इस तरह से व्यक्ति के जीवन में शनि का जो योगदान मिलता है वह समझकर ही अगर किया जाता है तो व्यक्ति की सफ़लता मिलनी निश्चित होती है। उदाहरण के तौर पर अगर शनि बारहवे भाव में जाकर वक्री हो गया है,बारहवां भाव जेल जाने का कारण भी बनाता है,अगर शनि मार्गी होता है तो जेल में जाकर जेल के कार्य करना और जेल सम्बन्धी दुख भोगना जरूरी होता है,लेकिन शनि अगर बारहवें भाव में वक्री है तो वह दूसरों को जेल जाने के कारणॊं से बचाता है,उसके अन्दर दिमागी ताकत आजाती है और वह कानून या अन्य कारणों से दूसरों को अपने द्वारा जेल जाने की नौबत से दूर रखने में अपनी सहायता करता है। बारहवा भाव मोक्ष का भाव भी कहा जाता है,जातक की कुन्डली में वह जहां भी गोचर करेगा मोक्ष के भावों को प्रस्तुत करता चला जायेगा। शनि के साथ,शनि से पंचम नवम भाव में जो भी ग्रह होंगे वे शनि को सहायता देने वाले ग्रह होंगे,अगर वह अच्छे ग्रह है तो अच्छी सहायता करेंगे और खराब ग्रह है तो खराब सहायता करेंगे। जैसे शनि अगर बारहवां है और शनि से नवें भाव यानी अष्टम भाव में सूर्य है तो शनि को सरकारी और पिता सम्बन्धी सहायता मिलेगी,वह सरकारी कारणों में जो कि कानूनी भी हो सकते है,साथ ही शनि अगर बारहवें भाव में वृष राशि का है तो वह धन सम्बन्धी कारणों से लोगों को जेल जाने और पारिवारिक कारणॊं से जेल जाने और बडी मुशीबत से फ़ंसने में सहायता करेगा। इसी शनि के अगर नवें भाव में सूर्य है तो कार्यों के मामले में पिता और बडे सरकार से सम्बन्धित बडे अधिकारियों और राजनीतिक लोगों से लाभ देने के मामले में भी जाना जायेगा,पिता के द्वारा धन सम्बन्धी कारणों को सुलझाने के दिमागी कारणों को जातक ने अपने जन्म से ही सीखा होगा और वह पिता की छत्रछाया में ही बडे बडे अफ़सरों से मिलता रहा होगा तथा समय पर अपने लिये उन्ही लोगों और पिता से सम्बन्धित ज्ञान को समय समय पर प्रकट करने के बाद अपने कार्यों को करने में अपनी योग्यता को प्रकट करेगा। इसके साथ ही अगर इस शनि को अगर गुरु का प्रभाव भी शनि से नवें भाव से मिला होगा तो वह कानूनी रूप से अपने कार्यों को करने वाला होगा,वैसे साधारण ज्योतिष के अनुसार वृष राशि के नवें भाव में मकर राशि का स्थान है और यहां पर कई लोग गुरु को नीच का मान लेते है लेकिन गुरु अगर अष्टम में है तो वह नीचता को त्याग देगा,कारण बारहवें भाव में वृष राशि होने का मतलब होता है कि लगन मिथुन लगन की है और मिथुन लगन से अष्टम में गुरु का स्थान मकर राशि में होने से वह अपनी नीच प्रकृति को त्याग कर विपरीत राजयोग की श्रेणी को प्रस्तुत करेगा। इसके लिये कई विद्वानों ने अपने अपने भाव प्रदान किये है लेकिन नीच के गुरु की मान्यता तभी तक मान्य थी जब तक वर्ण व्यवस्था कायम थी और लोग अपने अपने वर्ण के अनुसार ही कार्य किया करते थे,आज किसी भी वर्ण का व्यक्ति कोई भी कार्य करने के लिये स्वतंत्र है,ब्राह्मण हरिजन के भी कार्य कर रहा है और हरिजन ब्राह्मण के भी कार्य कर रहा है,पानी भरने के लिये पहले भिस्ती का काम हुआ करता था आज कोई भी पानी भरने के लिये अपने कर्म को प्रदान कर सकता है,पहले राजपूतों का कार्य केवल रक्षा करना होता था तो आज राजपूत आराम से कृषि वाले कार्य भी कर रहे है और पूजा पाठ के कार्यों में भी लगे है। इस प्रकार से गुरु की नीचता का प्रभाव अब उस तरीके से नही माना जाता है। चूंकि मकर राशि का प्रभाव अष्टम में जाने से धन सम्बन्धी कार्यों की विवेचना करने से भी माना जाता है जो धन अनैतिक रूप से लोग अपने पास अण्डर ग्राउंड बेस में रखते है लेकिन किसी प्रकार के मंगल के दखल के कारण उस धन को सही रूप में साबित करने और धन के मामले में उचित सलाह देने तथा राजकीय अधिकारियों से जान पहिचान होने से और कानूनी बातों का पता होने से इस स्थान के गुरु और बारहवें भाव के बक्री शनि की ताकत से वह अपने दिमागी बल से अफ़सरों से जान पहिचान करने के बाद जो भी जेल जाने या बरबाद होने की स्थिति में आता है उसे जातक के द्वारा बचा लिया जाना माना जाता है। इसी प्रकार से अगर गुरु को बल देने के लिये अन्य ग्रह भी जैसे सूर्य भी है गुरु भी है और शुक्र भी है तो जातक की महिमा अपने समय के अनुसार आगे से आगे बढ जाती है। केवल सूर्य गुरु के कारण यह शनि कानूनी मान्यता को ही अपने जाल से निकालने में सहायता करता है लेकिन शुक्र के साथ हो जाने से सम्पत्ति से भी दूर करने में सहायता करता है जो भी सम्पत्ति है उसे जातक के प्रयास से दूसरी रास्ताओं के द्वारा सूचित किया जाता है और इस प्रयास से जातक खुद के अलावा राजकीय अधिकारियों और जिसकी गल्ती पकडी गयी उसे भी फ़ायदा देने के लिये उत्तम माना जाता है। वक्री शनि का दूसरा प्रयास होता है दिमागी रूप से लगातार आगे बढना,कारण लगन को बल देने के लिये यह शनि बहुत अच्छे प्रयास करता है,शनि बालों का और चमडी का कारक भी है,अगर बारहवां शनि मार्गी है तो जातक की खोपडी में घने बाल होंगे और शनि बारहवें भाव में वक्री है तो जातक की खोपडी गंजी होती है। इस शनि का प्रभाव जातक की कुंडली में दूसरे भाव में भी होता है,दूसरा भाव जातक के लिये धन और अपने ही परिवार के लिये माना जाता है,इसके अलावा भी यह देखा जाता है कि जब भी जातक को किसी प्रकार से धन की जरूरत महसूस होती है तो जातक को गुप्त रूप से सूर्य और गुरु के साथ शुक्र की सहायता मिल जाती है,कारण इस शनि से नवें भाव में विराजमान ग्रह उसे वक्त पर सहायता देने के लिये हमेशा आगे रहते है।

शनि के कर्म भाव में यानी शनि से दसवें भाव में जो भी भाव होता है वह कानूनी और विदेश से सम्बन्धित होता है जातक के लिये वह भाव भाग्य वाली बातों के लिये भी जाना जाता है,जैसे शनि के दसवें भाव में अगर कुम्भ राशि है,तो जातक के लिये लाभ और मित्रों की सहायता कानूनी रूप से मिलनी जरूरी है,अगर उस भाव में चन्द्रमा है तो जातक जनता से जनता वाली मुशीबतों का कार्य करने के बाद अपने क्षेत्र में नाम करने के लिये माना जायेगा,इसके अलावा अगर मंगल है तो वह कानूनी रूप से लडी जाने वाली लडाइया और बडे रक्षा वाले पदों के लिये अपनी मान्यता को दिमागी रूप से रखेगा और अगर बुध है तो जातक के लिये कानून वाले काम तथा कमन्यूकेशन वाले काम और धर्म से सम्बन्धित लोगों को दान देने वाले काम हमेशा आगे बढाते रहने के लिये अपना योगदान करते रहेंगे,गुरु के होने से जातक के लिये जन्म स्थान से दूर जाकर बडे बडे कार्य करने का अवसर मिलता है,यात्राओं वाले कार्यों के लिये और रहने आदि के लिये स्थान प्रदान करवाने के लिये जातक की समय पर सहायता मिलती रहती है शुक्र के होने से जातक के पास पारिवारिक सम्पत्ति होती तो बहुत है लेकिन उसे प्रयोग करने के लिये उसे अपने पारिवारिक जनों से दिक्कत मिलती है,इस तरह से शनि को कर्म के रूप में मान्यता दी गयी है।

शुक्रवार, 19 नवंबर 2010

कामाख्या स्तोत्र

आज हर व्यक्ति उन्नति, यश, वैभव, कीर्ति, धन-संपदा चाहता है वह भी बिना बाधाओं के। मां कामाख्या देवी का कवच पाठ करने से सभी बाधाओं से मुक्ति मिल जाती है। आप भी कवच का नित्य पाठ कर अपनी मनोवांछित अभिलाषा पूरी कर सकते हैं।नारद उवाचकवच कीदृशं देव्या महाभयनिवर्तकम।कामाख्यायास्तु तद्ब्रूहि साम्प्रतं मे महेश्वर।।नारद जी बोले-महेश्वर!महाभय को दूर करने वाला भगवती कामाख्या कवच कैसा है, वह अब हमें बताएं।
महादेव उवाचशृणुष्व परमं गुहयं महाभयनिवर्तकम्।कामाख्याया: सुरश्रेष्ठ कवचं सर्व मंगलम्।।यस्य स्मरणमात्रेण योगिनी डाकिनीगणा:।राक्षस्यो विघ्नकारिण्यो याश्चान्या विघ्नकारिका:।।क्षुत्पिपासा तथा निद्रा तथान्ये ये च विघ्नदा:।दूरादपि पलायन्ते कवचस्य प्रसादत:।।निर्भयो जायते मत्र्यस्तेजस्वी भैरवोयम:।समासक्तमनाश्चापि जपहोमादिकर्मसु।भवेच्च मन्त्रतन्त्राणां निर्वघ्नेन सुसिद्घये।। 30।।

महादेव जी बोले-सुरश्रेष्ठ! भगवती कामाख्या का परम गोपनीय महाभय को दूर करने वाला तथा सर्वमंगलदायक वह कवच सुनिये, जिसकी कृपा तथा स्मरण मात्र से सभी योगिनी, डाकिनीगण, विघ्नकारी राक्षसियां तथा बाधा उत्पन्न करने वाले अन्य उपद्रव, भूख, प्यास, निद्रा तथा उत्पन्न विघ्नदायक दूर से ही पलायन कर जाते हैं। इस कवच के प्रभाव से मनुष्य भय रहित, तेजस्वी तथा भैरवतुल्य हो जाता है। जप, होम आदि कर्मों में समासक्त मन वाले भक्त की मंत्र-तंत्रों में सिद्घि निर्विघ्न हो जाती है।। 30।।।। मां कामाख्या देवी कवच।।

ओं प्राच्यां रक्षतु मे तारा कामरूपनिवासिनी।आग्नेय्यां षोडशी पातु याम्यां धूमावती स्वयम्।।नैर्ऋत्यां भैरवी पातु वारुण्यां भुवनेश्वरी।वायव्यां सततं पातु छिन्नमस्ता महेश्वरी।। 32।।
कौबेर्यां पातु मे देवी श्रीविद्या बगलामुखी।ऐशान्यां पातु मे नित्यं महात्रिपुरसुन्दरी।। 33।।
ऊध्र्वरक्षतु मे विद्या मातंगी पीठवासिनी।सर्वत: पातु मे नित्यं कामाख्या कलिकास्वयम्।। 34।।
ब्रह्मरूपा महाविद्या सर्वविद्यामयी स्वयम्।शीर्षे रक्षतु मे दुर्गा भालं श्री भवगेहिनी।। 35।।
त्रिपुरा भ्रूयुगे पातु शर्वाणी पातु नासिकाम।चक्षुषी चण्डिका पातु श्रोत्रे नीलसरस्वती।। 36।।
मुखं सौम्यमुखी पातु ग्रीवां रक्षतु पार्वती।जिव्हां रक्षतु मे देवी जिव्हाललनभीषणा।। 37।।
वाग्देवी वदनं पातु वक्ष: पातु महेश्वरी।बाहू महाभुजा पातु कराङ्गुली: सुरेश्वरी।। 38।।
पृष्ठत: पातु भीमास्या कट्यां देवी दिगम्बरी।उदरं पातु मे नित्यं महाविद्या महोदरी।। 39।।
उग्रतारा महादेवी जङ्घोरू परिरक्षतु।गुदं मुष्कं च मेदं च नाभिं च सुरसुंदरी।। 40।।
पादाङ्गुली: सदा पातु भवानी त्रिदशेश्वरी।रक्तमासास्थिमज्जादीनपातु देवी शवासना।। 41।
।महाभयेषु घोरेषु महाभयनिवारिणी।पातु देवी महामाया कामाख्यापीठवासिनी।। 42।।
भस्माचलगता दिव्यसिंहासनकृताश्रया।पातु श्री कालिकादेवी सर्वोत्पातेषु सर्वदा।। 43।।
रक्षाहीनं तु यत्स्थानं कवचेनापि वर्जितम्।तत्सर्वं सर्वदा पातु सर्वरक्षण कारिणी।। 44।।
इदं तु परमं गुह्यं कवचं मुनिसत्तम।कामाख्या भयोक्तं ते सर्वरक्षाकरं परम्।। 45।।
अनेन कृत्वा रक्षां तु निर्भय: साधको भवेत।न तं स्पृशेदभयं घोरं मन्त्रसिद्घि विरोधकम्।। 46।।
जायते च मन: सिद्घिर्निर्विघ्नेन महामते।इदं यो धारयेत्कण्ठे बाहौ वा कवचं महत्।। 47।।
अव्याहताज्ञ: स भवेत्सर्वविद्याविशारद:।सर्वत्र लभते सौख्यं मंगलं तु दिनेदिने।। 48।।
य: पठेत्प्रयतो भूत्वा कवचं चेदमद्भुतम्।स देव्या: पदवीं याति सत्यं सत्यं न संशय:।। 49।।

हिन्दी में अर्थ : कामरूप में निवास करने वाली भगवती तारा पूर्व दिशा में, पोडशी देवी अग्निकोण में तथा स्वयं धूमावती दक्षिण दिशा में रक्षा करें।। 31।। नैऋत्यकोण में भैरवी, पश्चिम दिशा में भुवनेश्वरी और वायव्यकोण में भगवती महेश्वरी छिन्नमस्ता निरंतर मेरी रक्षा करें।। 32।। उत्तरदिशा में श्रीविद्यादेवी बगलामुखी तथा ईशानकोण में महात्रिपुर सुंदरी सदा मेरी रक्षा करें।। 33।। भगवती कामाख्या के शक्तिपीठ में निवास करने वाली मातंगी विद्या ऊध्र्वभाग में और भगवती कालिका कामाख्या स्वयं सर्वत्र मेरी नित्य रक्षा करें।। 34।। ब्रह्मरूपा महाविद्या सर्व विद्यामयी स्वयं दुर्गा सिर की रक्षा करें और भगवती श्री भवगेहिनी मेरे ललाट की रक्षा करें।। 35।। त्रिपुरा दोनों भौंहों की, शर्वाणी नासिका की, देवी चंडिका आँखों की तथा नीलसरस्वती दोनों कानों की रक्षा करें।। 36।। भगवती सौम्यमुखी मुख की, देवी पार्वती ग्रीवा की और जिव्हाललन भीषणा देवी मेरी जिव्हा की रक्षा करें।। 37।। वाग्देवी वदन की, भगवती महेश्वरी वक्ष: स्थल की, महाभुजा दोनों बाहु की तथा सुरेश्वरी हाथ की, अंगुलियों की रक्षा करें।। 38।। भीमास्या पृष्ठ भाग की, भगवती दिगम्बरी कटि प्रदेश की और महाविद्या महोदरी सर्वदा मेरे उदर की रक्षा करें।। 39।। महादेवी उग्रतारा जंघा और ऊरुओं की एवं सुरसुन्दरी गुदा, अण्डकोश, लिंग तथा नाभि की रक्षा करें।। 40।। भवानी त्रिदशेश्वरी सदा पैर की, अंगुलियों की रक्षा करें और देवी शवासना रक्त, मांस, अस्थि, मज्जा आदि की रक्षा करें।। 41।। भगवती कामाख्या शक्तिपीठ में निवास करने वाली, महाभय का निवारण करने वाली देवी महामाया भयंकर महाभय से रक्षा करें। भस्माचल पर स्थित दिव्य सिंहासन विराजमान रहने वाली श्री कालिका देवी सदा सभी प्रकार के विघ्नों से रक्षा करें।। 43।। जो स्थान कवच में नहीं कहा गया है, अतएव रक्षा से रहित है उन सबकी रक्षा सर्वदा भगवती सर्वरक्षकारिणी करे।। 44।। मुनिश्रेष्ठ! मेरे द्वारा आप से महामाया सभी प्रकार की रक्षा करने वाला भगवती कामाख्या का जो यह उत्तम कवच है वह अत्यन्त गोपनीय एवं श्रेष्ठ है।। 45।। इस कवच से रहित होकर साधक निर्भय हो जाता है। मन्त्र सिद्घि का विरोध करने वाले भयंकर भय उसका कभी स्पर्श तक नहीं करते हैं।। 46।। महामते! जो व्यक्ति इस महान कवच को कंठ में अथवा बाहु में धारण करता है उसे निर्विघ्न मनोवांछित फल मिलता है।। 48।। वह अमोघ आज्ञावाला होकर सभी विद्याओं में प्रवीण हो जाता है तथा सभी जगह दिनोंदिन मंगल और सुख प्राप्त करता है। जो जितेन्द्रिय व्यक्ति इस अद्भुत कवच का पाठ करता है वह भगवती के दिव्य धाम को जाता है। यह सत्य है, इसमें संशय नहीं है।। 49।।

सफ़लता का राज

सफ़ल लोगों की जिन्दगी को देखकर यही माना जाता है कि उनके पीछे कोई जादू टोना या उनके पास कोई ऐसी शक्ति है जो उन्हे लगातार आगे बढाती चली जा रही है,हम अपने आसपास के लोगों को देखते है कि वे आगे बढते चले जा रहे है और हम अपने ही स्थान पर मील के पत्थर की भांति दूसरों को रास्ता बताये जा रहे है,लोग हमारे बताये रास्ते से अपनी मंजिलों को प्राप्त कर रहे है जबकि हम वहीं के वहीं खडे है।

सफ़लता के लिये कोई बडा प्रयास नही करना पडता है,सभी के पास हाड मांस के ही शरीर है,कोई लोहे या इस्पात का नही बना है,सभी भोजन करते है पानी पीते है और अपने अपने कार्यों को करते है,जीवन में व्यक्ति को आहत करने वाले भी कई तत्व है और उन तत्वों से बच गया वह अपने लक्ष्य को प्राप्त कर लेता है और जो उन तत्वों में उलझ गया वह आगे बढने से रुक गया यह भी अटल सत्य है।

सबसे जरूरी काम जो हर मनुष्य को आगे बढाने के लिये माना जाता है वह है सामने का कार्य पूरा करना और जो कार्य पूरा किया गया है उसके बारे में तभी सोचना जब उस कार्य की कोई मीमांशा सामने आये। जो लोग भूत काल के कामो पर समीक्षा करना अधिक जानते है वे भविष्य के कामो से दूर रह जाते है,जिनके अन्दर आज के काम के वक्त कल की चिन्ता होती है वे आज का भी काम नही कर पाते है और कल का काम भी नही कर पाते है,जिनका कल का काम पूरा नही हुया है वे आज का काम भी पूरा नही कर पायेंगे और कल का काम भी उनके लिये अधूरा रह जायेगा,जो भी काम सामने है उसे पहले पूरा करने में ही आज का काम पूरा होने की निशानी है और जो आज का काम पूरा हो गया है वह कल का काम भी पूरा करेगा,इस बात की गारंटी ली जा सकती है।

आज के काम के अन्दर जो सीखा है वह कल के काम के अन्दर शायद काम नही आये लेकिन आज की क्रिया शक्ति जो काम करने की शक्ति कहलाती है चाहे वह शरीर की मेहनत हो या दिमागी उलझन हो वह कल भी अपना कार्य सुचारु रूप से अपने आप काम आने लगेगी,जो भी अपने काम को करते वक्त दूसरों से पूंछकर काम करने में आस्था रखता है वह अपने काम को जनता और समाज के अनुसार पूरा कर लेता है,पूंछने के लिये जरूरी नही है कि आदमी की ही जरूरत पडे आप किताबों से पूंछ सकते है आजकल के दौर में नेट से पूंछ सकते है आपको बताने वाले कई मिल जायेंगे लेकिन जो आपके अनुसार ही बता रहे हों उनसे दूर रहना भी जरूरी है कारण उन्हे आपसे अधिक मालुम नही है और वे आप से अधिक बता भी नही पायेंगे,जो आपसे कम बताते है उनसे तो और भी दूर रहना जरूरी है और आपसे अधिक बताते है या आपको उनकी बात समझ में नही आती है तो उनकी बुद्धि को पहले प्राप्त करना जरूरी है चाहे वह बुद्धि कितनी ही कीमत देकर क्यों न चुकानी पडे।

परिवार समाज रिस्तेदार सभी के होते है,सभी अपने अपने घर के सदस्यों के साथ चलना जानते है लेकिन जब व्यक्ति की शादी हो जाती है तो वह चाहे स्त्री हो या पुरुष उसे अपने लिये बताने वाला और डिस्कसन करने वाला मिल जाता है उसके बाद उस व्यक्ति से यह आशा नही करनी चाहिये कि वह कल की तरह तुम्हारी सहायता करेगा,और अगर वह किसी तरह से सहायता करेगा भी तो कल उस सहायता की एवज में आपको उसकी कीमत को चुकाना भी पडेगा,अन्यथा समाज या परिवार की तरफ़ से प्रताणना मिलेगी उसे सहन करना भी बस की बात नही होगी। भाई का साथ तभी तक माना जा सकता है जब तक के भाभी का आगमन नही होता है,भाभी के आगमन के बाद भाई अपनी सभी रिस्तेदारियों को भूल जाता है अगर वह अपनी रिस्तेदारियों को नही भूलता है और परिवार में उलझ कर रह जाता है तो जरूरी है कि भाई या तो अकेले जिन्दगी निकाल रहा होगा या किसी पारिवारिक न्यायालय के चक्कर लगा रहा होगा या फ़िर घर के लिये सिरदर्द बनकर बैठा होगा,भाई की शादी होने के तुरत बात उसे अपने हाल पर जो छोडना ही सही है कारण आज नही तो कल उसे छोडना ही पडेगा अन्यथा जो भी कमाई इज्जत आदि भाई के साथ मिलकर कमायी जायेगी उसके अलग होते ही या भाभी के आने के बाद वह खटाई में चली जायेगी,मानसिक लगाव अधिक होने के कारण वह भाभी जो भाई की अर्धांगिनी है आपके दिमाग में खटकने लगेगी,और जो नही होना वह होने लगेगा,भाई की शादी के बाद केवल सामाजिक रिस्ता रखना ही ठीक माना जाता है,चाहे उसके अन्दर माता पिता कितनी ही अपनी बुद्धि को प्रयोग करें लेकिन समझदार वही होते है जो अपनी बुद्धि को माता पिता की बुद्धि के साथ नही जोडते है और अपने अनुसार ही अपना कार्य करने के बाद अगर भाई की शादी के बाद कोई परेशानी आर्थिक या सामाजिक है तो केवल कुछ समय दान के रूप में देकर ही उसकी सहायता कर सकते है अगर यह चाहत है कि भाई के साथ किये गये कार्य से आगे कोई भुगतान मिलना है तो वह सबसे बडी भूल मानी जायेगी,कारण उसके अन्दर कोई न कोई कमी रह जायेगी और भावनाओं और रिस्ते के का चैक रिस्तेदारी में आराम से भुना लिया जायेगा।

माता पिता की जोडी हुयी सम्पत्ति ही कभी कभी बडे दुख का कारण बनती है,अगर एक से अधिक भाई है तो और भी बडी मुशीबत पैदा हो जाती है,चालाक लोग उसी सम्पत्ति को अपनी आन बनाकर लडना शुरु कर देते है और अपने बुद्धि से अधिक उस कमाई पर अपना ध्यान देना शुरु कर देते है यह बात उन लोगों के अन्दर भी देखी जाती है जो सम्मिलित परिवार में रहते है और समय रहते उन्होने भी पिता के कामो में अपना साझे का रुख बना लिया है उन्हे अपने भाइयों के अलावा भी कई बातें सुनने को मिलती है और भाभी या छोटे भाई की पत्नी केवल यही ताना मारती रहेगी कि कल मिला क्या था जो भी था वह जेठानी या देवरानी ही लेकर खा गयी,अथवा कितनी ही मेहनत करने के बाद कमाई की गयी है लेकिन मानव मस्तिष्क के द्वारा यह कभी नही कबूला जायेगा कि अगले ने जितनी मेहनत की उसके अनुसार उसे फ़ल दिया जाये। इसके बाद जो अधिक चालाक लोग होते है वे अपने को असमर्थ सूचित करते है और सारी जिन्दगी अपनी ही कमजोरी को जाहिर करने के बाद भाई का अंश खाया करते है उन्हे यह भी पता होता है कि एक दिन यह सम्पत्ति चली जानी है और उस सम्पत्ति को जब तक भोगा जा सके भोगा जाये,इसके अलावा और भी लोग होते है जो अपने भाइयों की भावनाओं का फ़ायदा उठाते है,वे अक्सर अपने हिस्से को अपने भाइयों से अधिक लेने की कोशिश करते है जब कि एक ही मां की औलाद होने के नाते उनका हिस्सा बराबर का होता है,अक्सर यह बात बडे भाई के द्वारा छोटे भाई के साथ की जानी मिलती है,.चाहे बडा भाई खूब समर्थ है लेकिन वह अपने को जाहिर यही करेगा कि वह बहुत ही कमजोर है और उसे अधिक जायदाद की जरूरत है।

बडे छोटे का मान सम्मान और अधिक खतरे में तब और पड जाता है जब भावना के वशीभूत होकर लोग अपने अपने घर के सदस्यों के प्रति मनसा वाचा कर्मणा समर्पित हो जाते है उन्हे वास्तव में तब और आहत होना पडता है जब वे अपने जीवन को अपने परिवार के हित में लगा देते है और जब उनके ऊपर कोई आफ़त आती है तो परिवार वाले अपने अपने हाथ ऊपर कर लेते है,कई चालाक लोग तो यह कह देते है कि जहां से किया वहां से लेकर आओ,इस बात पर अक्सर कोर्ट कचहरी में लोगों को वकीलों और जजों के सामने गिडगिडाते हुये देखा जा सकता है जब वे अपनी ही सम्पत्ति को अपने लोगों से लेने के लिये मुकद्दमा लडते मिलते है।

जैसे को तैसा कर्म की बलिहारी

कल शाम को जयपुर से ही एक अवधेश मिश्राजी मेरे पास आये थे,अपने कार्यों से परेशान थे,जो भी कार्य वे हाथ में लेते पहले तो फ़ल बहुत अच्छा सामने आता लेकिन कुछ समय पश्चात वही काम खराब होने लगता और जो भी फ़ल मिलना होता वह एक दम समाप्त हो जाता। कार्य के अन्दर भी कोई भूल या कमी रहती वह भी नही मालुम होती,केवल फ़ल प्राप्त करने के समय जरूर कोई न कोई बात सामने आजाती। उनकी कुण्डली देखी तो कन्या लगन की कुण्डली थी,मंगल केतु तुला के होकर दूसरे भाव मे और राहु अष्टम में विराजमान था। नवे भाव में चन्द्रमा ग्यारहवे भाव मे वक्री गुरु छठे भाव मे सूर्य बुध और सप्तम में शुक्र शनि की युति। कहने को तो साधारण कुण्डली थी लेकिन हर काम को अक्समात समाप्त करने के लिये कौन सा ग्रह सामने था,इसके बारे में काफ़ी खोजबीन करने के बाद एक बात सामने आयी कि चन्द्रमा के पीछे अष्टम का राहु है,यह राहु ही कार्यों को अपने अपने अनुसार खराब करता चला जा रहा है। लेकिन राहु आखिर में कुंडली में है क्या,इस बात की खोज बीन करने के लिये मैने उनसे कुछ प्रश्न पूंछे.

उनका जन्म उत्तर प्रदेश के गोरखपुर जिला में बोरडीह गांव में हुआ था,उनके पिताजी दो भाई और तीन बहिन तथा खुद भी चार भाई और चारों ही इधर उधर.सूर्य को पिता और बुध को बहिन कुन्डली के अनुसार माना जाता है,राहु को दादा की श्रेणी में जाना जाता है,राहु जब अष्टम स्थान में होता है तो माना जाता है कि दादा को मुक्ति नही मिली है और वे शमशान के निवासी है,जब तक दादा को मुक्ति नही मिलेगी तब तक दादा जो आत्मा के रूप में है जातक और जातक के परिवार वालों को किसी न किसी रूप में कष्ट देता ही रहेगा।

दादा के रूप में राहु का स्थान अष्टम में होने से सबसे पहले दादा और फ़िर पिता और पिता के बाद जातक के बारे में सोचा जाता है कि पाप और कुकृत्य की शुरुआत कहां से हुयी। मैने पूंछा कि दादा कितने भाई थे,उनका जबाब था कि दो,मैने पूंछा कि बडे दादा की स्नेह तुम्हारे से कितना था,तो बोले के मेरे खुद के दादा से मेरे बडे दादा मुझे बहुत चाहते थे,और उस जमाने में वे जब किसी काम से दूसरे गांव में जाते तो उन्हे पानी पीने के लिये मनुहार में जो पेडे मिला करते थे वे एक दो खाकर बाकी के जेब में डालकर मेरे लिये घर लेकर आते थे,और अपनी चौपाल में मुझे बुलाकर चुपचाप मुझे ही खिलाया करते थे,जिससे घर के बाकी के बच्चे और बडे उन पेडों को ले न लें। वह जब अपने काम के लिये घर से बाहर निकले तो उनके दादा जी उनके ही गम से एक साल के अन्दर परलोक सिधार गये।

इसका मतलब बडे दादा का स्नेह उन पर अधिक था,और इसी स्नेह के कारण वे अक्सर तुम्हारे कार्यों के अन्दर दखल दिया करते है,और इस दखल का परिणाम तब अधिक मिलता है जब यह पता लगे कि आखिर उनका स्थान अष्टम में कैसे गया,कोई तो उनके द्वारा पाप किया गया होगा जिससे उन्हे मुक्ति नही मिली और वे अभी तक शमशान के अन्दर ही अपनी आत्मा को लेकर पडे है,जिसे नर्क के नाम से जाना जाता है।

राहु के ठीक सामने मंगल केतु के होने से किये जाने वाले पापों की गिनती मिलती है,अगर राहु अष्टम में है तो माना जाता है कि राहु मौत के घर में है और उसने जो पाप किया है वह दूसरे भाव में है जो प्रत्यक्ष रूप से दिखाई देता है। दूसरे भाव में मंगल अगर तुला का है तो खूनी वार करने वाला माना जाता है और केतु के साथ है तो किसी हथियार से सोच समझ कर वार करने के बाद की जाने वाली हत्या के मामले में जाना जाता है। इसी भाव को दूसरे स्थान पर परिवर्तित करने के बाद पता चलता है कि केतु को कुत्ता की श्रेणी में लाया जाता है और मंगल से खूनी रूप सामने लाने पर खूनी कुत्ता का रूप सामने होता है,यानी मंगल केतु को भेडिया के रूप में माना जा सकता है। मैने उनसे बोला कि आपके बडे दादा ने कुत्ते जैसे जानवरों को मारा था,उन्होने जबाब दिया कि हां मेरे दादा बताया करते थे कि उनके घर के पास में ही एक भेडिया ने अपनी मांद बनायी थी और उस मांद में उस भेडिया के जोडे ने सात बच्चों को जन्म दिया था,एक दिन उन्हे पता लगा तो वे मांद के बाहर लट्ठ लेकर बैठ गये थे,एक एक बच्चा जैसे ही मांद से बाहर निकलता वे एक ही लट्ठ के बार से उसे मारते जाते,इस तरह से उन्होने सातों बच्चों को मार डाला था। बाद में मादा भेडिया रात रात भर पूरे गांव में और आसपास के क्षेत्र में भटक भटक कर चिल्ला चिल्ला कर एक दिन तालाब मरी मिली थी।

इसका परिणाम उनके साथ यह हुआ कि उनके भी सात लडके पैदा हुये और वे एक एक करके मौत को प्राप्त हुये कोई छत से गिरकर मरा कोई तालाब में डूब कर मरा कोई आग से जल कर मरा कोई कुये में गिरकर मरा,सातों पुत्रों के मरने के बाद पहली दादी की मौत भी सर्दी के दिनों में पारसूत वाली बीमारी से हो गयी थी। फ़िर दादाजी ने दूसरी शादी की और उनके द्वारा तीन पुत्र और दो पुत्रियां जो आज भी हैं।

इसका मतलब है कि आपके दादाजी के द्वारा जो पाप किया गया था उसकी ऐवज में उनको भी अपने पुत्रों की मृत्यु का बहुत बडा सदमा लगा था,और उनके जो बाद में दूसरी दादी से पुत्र हुये वे उनके अनुसार नही होंगे इसलिये वह तुम्हारे ऊपर अधिक स्नेह रखा करते थे।

उनकी गति नही मिलने के कारण ही तुम्हारा भटकाव मिल रहा है,इसके लिये किसी अमावस्या को अपने बडे दादाजी के लिये गति प्रदान करने वाले कार्यों को करिये जिससे तुम्हारे दादाजी को मोक्ष मिले और वे तुम्हारे लिये फ़लदायी होकर अपने आशीर्वाद को तुम्हे प्रदान करें।

शनिवार, 9 अक्तूबर 2010

गुरु देता है जीव को गति

गति को बनाने के लिये जीवन में गुरु का साथ जरूरी है। गुरु अगर साथ दे रहा है तो जीवन में किसी भी बात की कमी नही रहती है। गुरु के पूर्ण समर्थन देने पर सभी प्रकार के साधन जीव को उपलब्ध हो जाते है। कहते है हवा का माफ़िक होना गंतव्य तक पहुँचाने के लिये काफ़ी होता है। गुरु की स्थिति कुंडली में देखे जाने पर ही व्यक्ति के जीवन का अच्छा या बुरा समय मालुम किया जाता है,बाकी के ग्रह तो गुरु के सहायक ही माने जाते है। गुरु बक्री भी होता है मार्गी भी होता है और अस्त भी उदय भी होता है,अपने अपने प्रकार से अपने प्रभाव को जातक को देता है जिससे जातक का जीवन चलता रहता है।

गुरु मार्गी होने पर जीव को सामान्य गति देता है गुरु बक्री होने पर जीव को जल्दबाजी की आदत देता है। गुरु के मार्गी होने पर संसार के सम्बन्ध सामान्य गति से चला करते है और गुरु के बक्री होने पर सम्बन्ध पलट भी जाते है,गुरु सम्बन्धो का कारक भी है। गुरु के प्रभाव जातक को उच्च और नीच के फ़ल भी मिलते है,उच्च के गुरु वाला जातक अधिकतर आज के जमाने के लोगों से दुखी ही रहता है। नीच के गुरु का व्यक्ति आज के जमाने के लोगों के साथ चलने वाला होता है। गुरु राशियों के प्रभाव को भी जीवन मे देता है,गुरु जिस राशि में होता है उसी के अनुसार अपना प्रभाव देता है। गुरु की राशियां धनु और मीन मानी जाती है,लेकिन गुरु नवें भाव में और बारहवें भाव में होने पर भी अपना असर धनु और मीन राशि का समिश्रित करके देता है। धनु का गुरु भाग्यवान भी बनाता है और देश विदेश से फ़ायदा भी देता है,लेकिन धनु राशि का छ: आठ या बारहवें भाव में होने पर वह अपने फ़लों में कमी या बढोत्तरी कर लेता है।

गुरु धन देने का भी कारक है,गुरु बैंक बीमा और फ़ायनेन्स से भी सम्बन्ध रखता है। गुरु से अष्टम चन्द्र अपमान देने का भी कारक होता है। गुरु हवा के साधनों के रूप में माना जाता है,इसलिये गुरु का प्रभाव जब चन्द्रमा से छठा और आठवां होता है तो वह भय और पौरुषता में कमी भी देने का कारक हो जाता है। गुरु मंगल के साथ मिलकर सम्बन्धों की तकनीक को जानने लगता है वैदिक धर्म के अन्दर तकनीकी बातों को भी करने लगता है। गुरु के उपायों के लिये धर्म स्थान पर जाना भी ठीक रहता है,गुरु से सम्बन्ध जो बिगड रहे होते है उनके अन्दर राहु के मिलाने से खून खराबे भी होते देखे गये है।

गुरुवार, 7 अक्तूबर 2010

धर्म स्थान की मर्यादा

उत्तर भारत के कितने ही धर्म स्थानों में गया हूँ,लेकिन जितनी धार्मिकता और यात्री का ख्याल दक्षिण भारत के तीर्थ स्थानों में जाने से देखने को मिलता है। बडौदा गुजरात से एक दम्पति रामेश्वरम की यात्रा के लिये आया था,माहेश्वरी धर्मशाला में वह परिवार रुका था दर्शन आदि करने के बाद उस परिवार ने कन्याकुमारी जाने और वापस आने के लिये जैनानी टूर कम्पनी से प्रोग्राम बनाया। दम्पत्ति कन्याकुमारी गया और विवेकानन्द शिला पर पर जाकर वहाँ से लौट रहा था। पत्नी अपने पर्स को लेकर स्टीमर के किनारे पर खडी थी,जैसे ही रुकने वाले स्थान पर स्टीमर रुका,एक झटके के साथ ही पर्स पत्नी के हाथ से छूट कर गहरे समुद्र में चला गया। वह पति पत्नी हाय हाय करने लगे,लेकिन किसी भी तरह से वह पर्स समुद्र से नही निकाला जा सका। उस पर्स के अन्दर उनके खर्चे की रकम थी। अधिक पढे लिखे नही होने और कोई अन्य सुविधा को बिना किसी पैसे के कैसे लिया जा सकता था। जैनानी टूर वाली गाडी के साथ भूखे प्यासे दम्पत्ति रामेश्वरम में आये,जैनानी टूर कम्पनी वालों ने मन्दिर के अन्दर कार्य करने वाली समिति से मिलवाया। समिति के सदस्यों ने उन दम्पत्ति के रहने का किराया जो माहेश्वरी धर्मशाला वालो को देना था,अदा किया,रामेश्वरम से बडौदा तक ट्रेन की टिकट और एक हजार रुपया उन्हें बतौर रास्ते के खर्च के दिया।
इस कार्यवाही को देखकर मैने हिन्दी जानने वाले एक सज्जन से पूँछा कि यह धन और सहायता जो इन दम्पति को दी गयी है वह क्या मन्दिर कमेटी वहन करती है। उन्होने जबाब दिया कि इस मन्दिर में छ: सौ पचास रजिस्टर्ड कर्मचारी है,इनकी कमेटी के अन्दर यह भी नियम है कि कोई यात्री अगर बीमार हो जाता है तो उसकी दवा कमेटी करवायेगी,किसी यात्री के साथ कोई हादसा होता है तो कमेटी उसके साथ जो सहायता करनी है करती है। सौ में से निन्न्यानवे लोग कमेटी के द्वारा किये गये खर्चे को वापस मनीआर्डर आदि से भेज देते है,कोई ही ऐसा होता है जो सहायता को नही भेजता है। उन्होने बताया कि कितने ही लोग यहाँ आकर हार्ट अटैक आदि से मृत्यु का ग्रास बन गये थे,उन्हे कमेटी ने किराये की गाडी से उसके घर तक भेजा है,मुफ़्त में दवाइयां और रहने का स्थान भी यह कमेटी असहाय यात्रियों को उपलब्ध करवाती है। अग्नि तीर्थ की तरफ़ खुलने वाले मन्दिर के दरवाजे की बायीं तरफ़ मन्दिर की कमेटी का  आफ़िस है.
मझे भी यही के मन्दिर कर्मचारी श्री टी.रवि के द्वारा जब भी मैं आया हूँ बिना किसी लोभ लालच के हर प्रकार की सहायता करवायी है,यहाँ तक कि अबकी बार अधिक समय तक रुकने के लिये जानकर उन्होने मुझे अपने घर के पास ही एक कमरा रसोई लेटबाथ बिजली पानी तथा रसोई के प्रयोग होने वाले सभी सामान सहित सुविधा उपलब्ध करवायी है। बीच बीच में आकर वे हालचाल भी पूँछ जाते है,उनकी पत्नी भी रसोई सम्बन्धी कार्य के लिये मिलने वाले सामान और भाषा की जानकारी नही होने से सहायता भी करती है। अभी मेरी बहू अचानक बीमार हो गयी थी,श्री टी.रवि की पत्नी उन्हे लेकर अच्छे डाक्टर के पास लेकर गयीं,और दवा आदि दिलवाकर लायीं। श्रीरामेश्वरम के दर्शन करने के लिये आने वाले मित्रों से उनकी सेवायें लेने के लिये अनुरोध है,कारण वे अच्छी हिन्दी जानते है और मन्दिर की रेट के अनुसार ही अपना चार्ज लेते है,पैसा नही होने पर भी यात्रियों की सहायता करते है। उनका मोबाइल नम्बर 09360255521 है.

गुरुवार, 23 सितंबर 2010

अहम किसके लिये ?

वाल्मीकि का आतंक जब चरमसीमा पर पहुँच गया तो प्रकृति ने न्याय के लिये सप्तऋषियों को भेजा। लूटने की प्रक्रिया में माहिर वाल्मीकि ने उन सप्त ऋषियों को भी लूटने की प्रक्रिया अपनायी। सप्त ऋषियों ने उनसे कहा कि आप हमें लूट लो कोई बात नहीं,आप हमें मारडालो कोई बात नहीं,आप हमारे शरीर को घायल कर दो कोई बात नहीं,लेकिन हमारे एक प्रश्न का उत्तर दे दो,वाल्मीकि के सामने ऐसा उदाहरण कभी जीवन में नही आया था,उन्होने जिसे भी लूटा था वह या तो कातरता से चिल्लाता था,या अपनी जान और माल को बचाने के लिये उनसे बच कर भागने की कोशिश करता था,लेकिन इस प्रकार की बात कोई नही करता था कि लूट भी लो मार भी डालो घायल भी कर दो,लेकिन प्रश्न का जबाब देदो। उन्होने अपने को संभाला और उत्सुकता वश प्रश्न करने के लिये कहा। सप्तऋषियों ने प्रश्न किया कि- " यह लूटने का और हत्या करने का उद्देश्य क्या है ? यह सब कार्य किसके लिये कर रहे हो,इस किये जाने वाले कार्य का भुगतान जब प्रकृति देगी तो उसकी सजा कौन कौन भुगतेगा?",वाल्मीकि जी ने बडी ही आसानी से जबाब दिया कि वे अपने परिवार के पालन पोषण के लिये यह कार्य कर रहे है,और उनके द्वारा किये जाने वाले कार्य का उद्देश्य केवल अपना और अपने परिवारी जनों के पालन पोषण का है,और जब प्रकृति सजा देगी तो जो लोग उनके साथ परिवार में है सभी को सजा भुगतने का अधिकार होगा",इतने जबाब को सुनकर उन सप्तऋषियों ने प्रश्न किया कि पहले अपने परिवारी जनों से पूँछो कि वे तुम्हारे द्वारा किये गये पापों की सजा को भुगतने के लिये राजी हैं,अगर वे सभी राजी है तो हम लुटने के लिये,मरने के लिये और घायल होने के लिये तैयार हैं,वाल्मीकि जी ने बडी मजाकिया मुद्रा में जबाब दिया कि वाह जब तक मै सबसे पूँछने जाऊँ,तब तक तुम सभी दूर भाग जाओ,सप्तऋषियों ने उनसे सभी को बन्धन देने और जाकर पूँछने के लिये कहा। वाल्मीकि जी ने सभी सप्तऋषियों को पेडों से बांध कर जिससे वे भाग न जायें,अपने परिवारी जनों से पूंछने के लिये गये। दरवाजे पर उनकी माताजी पिताजी के साथ विराजमान थी,उन्होने अपने पुत्र को आते ही भावनापूर्ण शब्दों में वातसल्य भाव से कहा,कि उनका बेटा कार्य करने के बाद घर आया है उसके भोजन पानी की पूर्ति की जाये,वाल्मीकि जी अपने कार्य को अधूरा छोड कर आये थे,उन्होने आते ही अपनी माताजी और पिताजी से पूँछा कि वह जो कार्य कर रहे है उस कार्य की पाप पुण्य की सजा भोगने के लिये क्या वे भी उनका साथ देंगे,माता पिता ने साफ़ शब्दों में जबाब दिया कि उन्होने अपने माता पिता के कर्तव्य को पूरा करने के बाद ही अपने बुढापे में पुत्र के सहायता की आशा की है,पुत्र क्या करता है उन्हे कोई पता नही है,पुत्र पाप से कमा कर लाता है या पुण्य से कमाकर लाता है उन्हे उससे कोई लेना देना नही है,वह केवल यह जानते है कि पुत्र अपने कर्तव्य का पालन कर रहा है,और जो भी कार्य पुत्र करेगा,उसके पाप पुण्य का अधिकारी खुद पुत्र ही होगा,माता पिता उसके किसी भी पाप पुण्य के अधिकारी नही होते है। वाल्मीकि जी के मसिष्क में विचार कौंधा कि जब माता पिता ही उनके द्वारा किये गये पापों के अधिकारी नही है तो वह अपने माता पिता के पालनपोषण के लिये पाप क्यों करते है,कोई बात नही उनकी पत्नी और भाई बहिन बच्चे ही उनके किये गये पापों में भागीदार होंगे उन्होने से बारी बारी से सभी से प्रश्न किया,सभी ने यही जबाब दिया कि वे उनके लिये कार्य कर रहे है,और वह उनके लिये कार्य कर रहे है,जो पाप से कार्य कर रहा है वह पाप के लिये और जो पुण्य से कार्य कर रहा है वह पुण्य का अपने अपने कर्मों से खुद ही पाप और पुण्य का अधिकारी है,कोई भी किसी के पाप और पुण्य को करने का अधिकारी नही बन सकता है। वाल्मीकि जी को ज्ञान हो गया,वे सोचने लगे कि जब उनके किये गये कार्यों का कोई पाप का अधिकारी नही बनना चाहता है तो वह क्यों सबके लिये पाप किये जा रहे हैं,उन्हे उन सप्तऋषियों का ख्याल आया,वे वापस उसी वन में उनके पास भागे और उन्हे बन्धन मुक्त करने के बाद उनके पैरों पर गिरकर उनके द्वारा किये गये पाप की माफ़ी मांगी,और उनसे पूर्व समय में किये गये पापॊ की मुक्ति के लिये उपाय पूँछा। सप्तऋषियों ने जबाब दिया कि वे नाम सहारा लें और नाम को स्मरण करते रहें,उन्हे "राम" का नाम स्मरण करने के लिये जपने के लिये कहा गया,लेकिन जो व्यक्ति जीवन भर केवल मारने का ही काम करता रहा हो वह भला राम को कैसे जप सकता था,वह इस नाम को कैसे स्मरण कर सकता था। राम को जाप करने की बजाय वे "मरा मरा" जपने लगे,लगातार मरा मरा जपने के बाद उनकी जुबान से राम राम शब्द की उत्पत्ति होने लगी,और वही वाल्मीकि जी महान वाल्मीकि ऋषि की श्रेणी में आये,माता सीता को उन्होने अपने सानिध्य में रखा और वाल्मीकि कृत रामायण का निर्माण करने के बाद अपनी रामायण को राम पुत्र लव और कुश के द्वारा राम दरवार में सुनाया।

मानवीय न्याय बनाम प्रकृति का न्याय

जब किसी अपराधी को अपराध की सजा दी जाती है तो लोग प्रशंसा करते है लेकिन जब किसी निरपराधी को सजा मिल जाती है तो लोग उस न्याय प्रक्रिया की भर्त्सना करने लगते है। जिसने भी न्याय को सही नही किया होता है और न्याय करने में जितने लोग जिम्मेदार होते है वे चाहे किसी धर्म के हों,किसी भी जाति के हों किसी भी समुदाय या देश में रहने वाले हों प्रकृति उनके साथ जो न्याय करती है वह जनसमुदाय को समझने वाली बात होती है,और उस न्याय को गलत करने के उपरान्त जो दंड उन्हे भोगने को मिलता है वह मानवीय जेलों में रहने वाले कैदी से हजार लाख गुना कष्टदायक होता है। दबी जुबान से आसपास रहने वाले और जानकार कहने भी लगते है,खुद को महसूस भी होता है लेकिन पद पर रहने के बाद जो अहम पैदा हो गया था और एक मनुष्य के वेश में खुद को भगवान मान कर शैतानी फ़ैसला कर देना या किसी भी तरह के जाली और अन्य प्रकार के तथ्यों को लगाकर वकालत करने के बाद अपराधी को बचा लेना,यह सब उस प्रकृति की आंखों से छिपा नही होता है,जिस दिन उसकी क्रिया चालू होती है बडे बडे हाथी और दिग्गज का बल रखने वाले अपने को शूरमा समझने वाले कैसे प्रकृति की मार से जूझते है कुछ इसी प्रकार के तथ्य आपके सामने प्रस्तुत हैं।

नाम राज सिंह (बदला हुआ नाम) राजस्थान के मुख्य शहर के निवासी है,उनके दो पुत्र और दो पुत्रियां है,खुद रक्षा सेवा से नौकरी करने के बाद वकालत करने लगे पहले भी वे सेना में वकालत करते रहे थे इसलिये उनके रिटायर होने के बाद वकालत करने में कोई दिक्कत नही आयी,आराम से पहले लोअर कोर्ट और बाद में हाई कोर्ट के वकील बन गये। अपना खुद का निवास स्थान बना लिया और अपना आफ़िस भी सभ्रांत जगह पर बना लिया,बात बनाने और धन को गौढ स्थान देने के कारण जितना जिसने धन दिया उसी के अनुसार उसके केश की पैरवी कर दी उनका यह काम लगातार बढने लगा। जब शैतानों को न्याय मिलने लगे तो शैतानी ताकतें गलत कमाये हुये धन को भी मुहैया करवाने लगीं,खूब धन आने लगा,जिसके पास रिटायर होने के बाद साइकिल भी नही थी वह जब महंगी गाडियां और बंगले संभालने लगे,जिनकी पत्नी ने कभी दाल रोटी से अधिक भोजन की कामना भी नही की थी अचानक उन्हे फ़ाइव स्टार होटलों में खाना खाते हुये देखा जाये तो अपने आप लोगों को अन्दाज होने लगता है कि किसी न किसी प्रकार की गलत कमाई के कारण ही ऐसा संभव हो सकता है। उनके द्वारा जो केश लडे जाते है उनके अन्दर अक्सर जमीन सम्बन्धी प्रकरण ही होते है,चोर लुटेरे डकैत जालसाज उनकी शरण में आते है और अपने केश उन्हे सौंप कर अपने को निर्दोष साबित करने के लिये उन्हे मुंह मांगा धन देते है,उन्होने भी अपनी वकालत के साथ एक माफ़िया गिरोह जैसा बना लिया है,किसी भी सामने वाले वकील को पहले धन से खरीदना,या वह धन से वश में नही आता है तो माफ़िया वाली धमकियों से डराना धमकाना कानूनी पत्रावलियों को इधर उधर करवाने के लिये कानूनी कार्य करने वालों से मिली भगत रखना,अधिकतर मामलों में धन की चाहत रखने वाले ही प्रेक्टिस करने के लिये कोर्ट में जाते है पहले उन्होने अपने जीविकोपार्जन के लिये वकालत की डिग्री ले ली और बाद में किसी वकील के सानिध्य में प्रेक्टिस शुरु कर दी और जो भी मेहनताना उन्हे मिलने लगा उससे वे अपने घर परिवार का खर्चा चलाने लगे। जब किसी केश में उनके सामने इस प्रकार के वकील आजाते है तो उन्हे केश के बदले में मुंह मांगी हुयी कीमत मिलती है एक तरफ़ जिसका केश लडा जा रहा है उसकी फ़ीस तो मिलनी ही है और दूसरी तरफ़ केश के प्रति पैरवी में लापरवाही के चलते सामने वाले को केश जीतने के लिये तैयार भी करना होता है,चूंकि उनका कार्य धन को कमाना है और इसी लिये वे कानून की पैरवी करने के लिये कोर्ट में आते है,एक ही जगह पर काम करना होता है इसलिये किसी प्रकार से सामने वाले वकील से अदावत भी नही की जा सकती है,मतलब एक ही माना जाता है कि धन ही अदालत के अन्दर गौढ बन गया है,जिसके पास धन है वह अदालत की जीत ले सकता है,चाहे वह कितना ही योग्य क्यों न हो,कितनी ही कानूनी परिभाषा उसे क्यों न आती हो,कितनी ही भागदौड वह करना क्यों न जानता हो जब तक वह धन का अधिक से अधिक प्रयोग अदालत में नही करेगा,वर्तमान की न्याय प्रक्रिया उसके लिये उचित न्याय नही देने वाली है। राजसिंह ने अपने सुख साधन के सभी इन्तजाम अपनी वकालत की कमाई से लगभग पूरे कर लिये,जब धन का मोह परिवार में बढ जाता है तो आज की भौतिक दुनिया की चमक दमक घर और परिवार वालों को और भी बढ जाती है और जब घर के अन्दर कोई परिवार का व्यक्ति अनाप सनाप धन को लाने लगे तो घर के सभी सदस्य उसके धन को प्रयोग करने के लिये उस धन को हासिल करने के लिये अपनी अपनी जुगत लगाना शुरु कर देते है,पिता अगर धन को घर में ला रहा है तो उसकी रखरखाव और सुरक्षा माता के पास आजाती है,जब घर के सदस्यों को धन की जरूरत पडती है तो बच्चे माता से, देवर भाभी से जेठ बहू से सास ससुर पुत्रवधू से सभी धन को किसी न किसी काम के लिये प्रयोग में लाना शुरु कर देते है,और जब धन खूब आ रहा हो उसकी गिनती किसी के पास नही हो तो अनाप सनाप खर्च करना भी जरूरी हो जाता है,मद की बढोत्तरी भी हो जाती है,जहां कोई बात नही होती है वहां बात बनाकर शत्रुता निकालने के लिये और आसपास के रहने वाले लोगों को नीचा दिखाने के लिये तरह तरह के कार्य किये जाने लगते है। राजसिंह के साथ भी यही होना था,उनके चारों बच्चे बडे से बडे स्कूल में पढने के लिये जाने लगे बडे हुये तो सभी के पास अपनी अपनी गाडियां हो गयीं,जो भी कार्य करना होता था धन की कमी थी नही,माताजी से केवल कहना भर होता था,कि धन हाजिर होजाता। राज सिंह का ख्याब बना कि किसी बहुत बडे पद पर उनका लडका जाये,लेकिन लडके ने जब डिग्री भी धन के बलबूते पर ली हो तो परीक्षा में पास होने के लिये भी नम्बर चाहिये,धन अधिकतर सभी जगह काम नही आता है कहीं कहीं पर ईमानदारी से भी काम होता है,जैसे रक्षा सेवा की परीक्षा में देश के गरिमा वाले पदों के लिये भी माना जा सकता है,लेकिन कुछ समय बाद इनके अन्दर भी भ्रष्टाचार की दीमक फ़ैलती जा रही है। जब बडे पद के लिये नही जा पाया तो उसे भी अपने साथ वकालत में ही लगा लिया,छोटा वाला लडका पिता से विपरीत चलने लगा,उससे जो कहा जाता उस काम को हरगिज नही करता था,केवल माता से सम्बन्ध रखता,किसी बहिन भाई की बात भी नही मानता था,कितने ही नशे उसने अपनी आदतों मे मिला लिये,वह अपने शरीर को तो गलाने ही लगा,जहाँ भी जाता वहीं पिता के नाम का फ़ायदा लेकर कुछ भी करने से नही चूकता। एक दिन किसी बात पर रास्ता चलते अन्जान व्यक्ति से भिडंत हो गयी,उस व्यक्ति ने उसे पत्थर से ठोक दिया,सिर में चोट लगी,पत्थर मारने वाला तो भाग गया,उसे अस्पताल में भेजा गया,बडे से बडे अस्पताल में उसके सिर की चोट का इलाज करवाने की कोशिश की गयी,मुंबई के जसलोक अस्पताल से लेकर जो भी जहां भी बडे अस्पताल थे,सभी में इलाज के लिये कोशिश की गयी लेकिन उसका दिमागी संतुलन नही बन पाया,करोडों रुपये खर्च होने के बाद वह लडका घर पर एक मुर्दा शरीर की तरफ़ पडा हुआ है,उसका मलमूत्र साफ़ करने के लिये नौकर का बन्दोबस्त किया जाता है लेकिन कुछ दिन काम करने के बाद नौकर भी अपना रास्ता ले लेता है,और वकील साहब की पत्नी को जवान पुत्र की देखरेख करनी पड रही है,उनकी हालत भी विक्षिप्त जैसी हो गयी है। उधर बडी लडकी की शादी एक सम्पन्न परिवार में की गयी,धन का बल वकील साहब ने खूब दिखाया,जितना खर्च करना था उसका कई गुना अपने नाम को कमाने के लिये किया,लडके वालों को भी अहसास हो गया कि काफ़ी धन है और जैसे भी धन को खींचा जा सके खींचा जाये। उन्होने दो चार महिने तो लडकी को बहुत प्यार से रखा और लडके के कहने से लडकी पिता से अनाप सनाप धन लाने लगी,लेकिन एक सीमा से बाहर जाते ही वकील साहब ने भी धन से देने से इन्कार कर दिया,एक पुत्री के साथ बडी लडकी आकर घर बैठ गयी,वकील साहब कोर्ट केश उस लडके वालों से नही कर पा रहे है,कारण उस लडके का बाप भी जज है। बडे लडके की शादी कर दी गयी,बहू घर में आयी और घर के रवैया को देखकर उसने आते ही घर में नौटंकी चालू कर दी और अपने पति को लेकर दूर जाकर एक मकान बनाकर रहने लगी,जो भी उस लडके का हिस्सा था वह भी साथ ले गयी,घर में वकील साहब को चाय पिलाने के लिये नौकरानी है तो मिल जाती है अन्यथा बाहर जाकर ही चाय पी जा सकती है। घर की टेंसन के कारण जो केश सामने थे,उनके अन्दर भी ढील शुरु हो गयी,जो दिमाग काम करता था वह पंगु सा हो गया,और जो क्लाइंट आते थे वे दूसरे वकीलों को तलाश करने लगे,इधर हाथ पैर भी कमजोर होने लगे घर से धन की सीमा धीरे धीरे समाप्त होने लगी,जवान लडके की दवाइयां,पहले से पाले गये अनाप सनाप खर्चे,आर्डर देकर काम करवाने की आदत सभी बेकार साबित होते गये। अधिक चिन्ता के कारण पलंग के मेहमान बन गये वकील साहब। आज उनकी पैतीस साल की लडकी किसी आफ़िस में काम करने के बाद कमा कर लाती है,जब वकील साहब की दवाइयां और लडके की दवाइयां आती है,वकील साहब की पत्नी के हाथ पैर के जोड काम नही करते है,वकील साहब की पीठ पलंग पर लगातार पडे रहने के कारण सडने लगी है,पास में बैठने से बदबू आती है,आगे के जीवन के लिये सभी अनुमान लगा सकते है.।