शुक्रवार, 19 नवंबर 2010

सफ़लता का राज

सफ़ल लोगों की जिन्दगी को देखकर यही माना जाता है कि उनके पीछे कोई जादू टोना या उनके पास कोई ऐसी शक्ति है जो उन्हे लगातार आगे बढाती चली जा रही है,हम अपने आसपास के लोगों को देखते है कि वे आगे बढते चले जा रहे है और हम अपने ही स्थान पर मील के पत्थर की भांति दूसरों को रास्ता बताये जा रहे है,लोग हमारे बताये रास्ते से अपनी मंजिलों को प्राप्त कर रहे है जबकि हम वहीं के वहीं खडे है।

सफ़लता के लिये कोई बडा प्रयास नही करना पडता है,सभी के पास हाड मांस के ही शरीर है,कोई लोहे या इस्पात का नही बना है,सभी भोजन करते है पानी पीते है और अपने अपने कार्यों को करते है,जीवन में व्यक्ति को आहत करने वाले भी कई तत्व है और उन तत्वों से बच गया वह अपने लक्ष्य को प्राप्त कर लेता है और जो उन तत्वों में उलझ गया वह आगे बढने से रुक गया यह भी अटल सत्य है।

सबसे जरूरी काम जो हर मनुष्य को आगे बढाने के लिये माना जाता है वह है सामने का कार्य पूरा करना और जो कार्य पूरा किया गया है उसके बारे में तभी सोचना जब उस कार्य की कोई मीमांशा सामने आये। जो लोग भूत काल के कामो पर समीक्षा करना अधिक जानते है वे भविष्य के कामो से दूर रह जाते है,जिनके अन्दर आज के काम के वक्त कल की चिन्ता होती है वे आज का भी काम नही कर पाते है और कल का काम भी नही कर पाते है,जिनका कल का काम पूरा नही हुया है वे आज का काम भी पूरा नही कर पायेंगे और कल का काम भी उनके लिये अधूरा रह जायेगा,जो भी काम सामने है उसे पहले पूरा करने में ही आज का काम पूरा होने की निशानी है और जो आज का काम पूरा हो गया है वह कल का काम भी पूरा करेगा,इस बात की गारंटी ली जा सकती है।

आज के काम के अन्दर जो सीखा है वह कल के काम के अन्दर शायद काम नही आये लेकिन आज की क्रिया शक्ति जो काम करने की शक्ति कहलाती है चाहे वह शरीर की मेहनत हो या दिमागी उलझन हो वह कल भी अपना कार्य सुचारु रूप से अपने आप काम आने लगेगी,जो भी अपने काम को करते वक्त दूसरों से पूंछकर काम करने में आस्था रखता है वह अपने काम को जनता और समाज के अनुसार पूरा कर लेता है,पूंछने के लिये जरूरी नही है कि आदमी की ही जरूरत पडे आप किताबों से पूंछ सकते है आजकल के दौर में नेट से पूंछ सकते है आपको बताने वाले कई मिल जायेंगे लेकिन जो आपके अनुसार ही बता रहे हों उनसे दूर रहना भी जरूरी है कारण उन्हे आपसे अधिक मालुम नही है और वे आप से अधिक बता भी नही पायेंगे,जो आपसे कम बताते है उनसे तो और भी दूर रहना जरूरी है और आपसे अधिक बताते है या आपको उनकी बात समझ में नही आती है तो उनकी बुद्धि को पहले प्राप्त करना जरूरी है चाहे वह बुद्धि कितनी ही कीमत देकर क्यों न चुकानी पडे।

परिवार समाज रिस्तेदार सभी के होते है,सभी अपने अपने घर के सदस्यों के साथ चलना जानते है लेकिन जब व्यक्ति की शादी हो जाती है तो वह चाहे स्त्री हो या पुरुष उसे अपने लिये बताने वाला और डिस्कसन करने वाला मिल जाता है उसके बाद उस व्यक्ति से यह आशा नही करनी चाहिये कि वह कल की तरह तुम्हारी सहायता करेगा,और अगर वह किसी तरह से सहायता करेगा भी तो कल उस सहायता की एवज में आपको उसकी कीमत को चुकाना भी पडेगा,अन्यथा समाज या परिवार की तरफ़ से प्रताणना मिलेगी उसे सहन करना भी बस की बात नही होगी। भाई का साथ तभी तक माना जा सकता है जब तक के भाभी का आगमन नही होता है,भाभी के आगमन के बाद भाई अपनी सभी रिस्तेदारियों को भूल जाता है अगर वह अपनी रिस्तेदारियों को नही भूलता है और परिवार में उलझ कर रह जाता है तो जरूरी है कि भाई या तो अकेले जिन्दगी निकाल रहा होगा या किसी पारिवारिक न्यायालय के चक्कर लगा रहा होगा या फ़िर घर के लिये सिरदर्द बनकर बैठा होगा,भाई की शादी होने के तुरत बात उसे अपने हाल पर जो छोडना ही सही है कारण आज नही तो कल उसे छोडना ही पडेगा अन्यथा जो भी कमाई इज्जत आदि भाई के साथ मिलकर कमायी जायेगी उसके अलग होते ही या भाभी के आने के बाद वह खटाई में चली जायेगी,मानसिक लगाव अधिक होने के कारण वह भाभी जो भाई की अर्धांगिनी है आपके दिमाग में खटकने लगेगी,और जो नही होना वह होने लगेगा,भाई की शादी के बाद केवल सामाजिक रिस्ता रखना ही ठीक माना जाता है,चाहे उसके अन्दर माता पिता कितनी ही अपनी बुद्धि को प्रयोग करें लेकिन समझदार वही होते है जो अपनी बुद्धि को माता पिता की बुद्धि के साथ नही जोडते है और अपने अनुसार ही अपना कार्य करने के बाद अगर भाई की शादी के बाद कोई परेशानी आर्थिक या सामाजिक है तो केवल कुछ समय दान के रूप में देकर ही उसकी सहायता कर सकते है अगर यह चाहत है कि भाई के साथ किये गये कार्य से आगे कोई भुगतान मिलना है तो वह सबसे बडी भूल मानी जायेगी,कारण उसके अन्दर कोई न कोई कमी रह जायेगी और भावनाओं और रिस्ते के का चैक रिस्तेदारी में आराम से भुना लिया जायेगा।

माता पिता की जोडी हुयी सम्पत्ति ही कभी कभी बडे दुख का कारण बनती है,अगर एक से अधिक भाई है तो और भी बडी मुशीबत पैदा हो जाती है,चालाक लोग उसी सम्पत्ति को अपनी आन बनाकर लडना शुरु कर देते है और अपने बुद्धि से अधिक उस कमाई पर अपना ध्यान देना शुरु कर देते है यह बात उन लोगों के अन्दर भी देखी जाती है जो सम्मिलित परिवार में रहते है और समय रहते उन्होने भी पिता के कामो में अपना साझे का रुख बना लिया है उन्हे अपने भाइयों के अलावा भी कई बातें सुनने को मिलती है और भाभी या छोटे भाई की पत्नी केवल यही ताना मारती रहेगी कि कल मिला क्या था जो भी था वह जेठानी या देवरानी ही लेकर खा गयी,अथवा कितनी ही मेहनत करने के बाद कमाई की गयी है लेकिन मानव मस्तिष्क के द्वारा यह कभी नही कबूला जायेगा कि अगले ने जितनी मेहनत की उसके अनुसार उसे फ़ल दिया जाये। इसके बाद जो अधिक चालाक लोग होते है वे अपने को असमर्थ सूचित करते है और सारी जिन्दगी अपनी ही कमजोरी को जाहिर करने के बाद भाई का अंश खाया करते है उन्हे यह भी पता होता है कि एक दिन यह सम्पत्ति चली जानी है और उस सम्पत्ति को जब तक भोगा जा सके भोगा जाये,इसके अलावा और भी लोग होते है जो अपने भाइयों की भावनाओं का फ़ायदा उठाते है,वे अक्सर अपने हिस्से को अपने भाइयों से अधिक लेने की कोशिश करते है जब कि एक ही मां की औलाद होने के नाते उनका हिस्सा बराबर का होता है,अक्सर यह बात बडे भाई के द्वारा छोटे भाई के साथ की जानी मिलती है,.चाहे बडा भाई खूब समर्थ है लेकिन वह अपने को जाहिर यही करेगा कि वह बहुत ही कमजोर है और उसे अधिक जायदाद की जरूरत है।

बडे छोटे का मान सम्मान और अधिक खतरे में तब और पड जाता है जब भावना के वशीभूत होकर लोग अपने अपने घर के सदस्यों के प्रति मनसा वाचा कर्मणा समर्पित हो जाते है उन्हे वास्तव में तब और आहत होना पडता है जब वे अपने जीवन को अपने परिवार के हित में लगा देते है और जब उनके ऊपर कोई आफ़त आती है तो परिवार वाले अपने अपने हाथ ऊपर कर लेते है,कई चालाक लोग तो यह कह देते है कि जहां से किया वहां से लेकर आओ,इस बात पर अक्सर कोर्ट कचहरी में लोगों को वकीलों और जजों के सामने गिडगिडाते हुये देखा जा सकता है जब वे अपनी ही सम्पत्ति को अपने लोगों से लेने के लिये मुकद्दमा लडते मिलते है।

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