शुक्रवार, 26 नवंबर 2010

कितना किसमें शील ?

पुराने जमाने में जब बारात लोग जाया करते थे तो देखा करते थे कि घरातियों ने कितना किसका सम्मान किया है कोई बाराती बिना भोजन के रह तो नही गया है,घराती मनुहार करने में नही थकते थे और बाराती मनुहार करवाने में पीछे नही रहते थे। जब बारात की विदा होती थी लोगों को नजर और सम्मान दिया जाता था,उस सम्मान में लडके के पिता और लडकी के पिता के छाती पान लगाने की प्रथा थी,दोनो समधियों के छाती में पान लगाकर गले मिलाया जाता था,यह बारात विदा होने के समय किया जाता था,और इस कार्य का मुख्य उद्देश्य दोनो समधियों के द्वारा किये गये रिस्ते में और दोनो पक्षों के बीच में हुये व्यवहारिक आदान प्रदान में कोई कमी रह गयी हो उसके लिये गले मिल कर शिकवा शिकायत दूर की जाती थी। पान का महत्व भी बहुत होता था,बिना पान के सम्मान कहां माना जा सकता है,पान को छाती से लगाने का मतलब भी बहुत गहरा होता था,पान के अन्दर सम्बन्धो में रंग लाने की अजीब क्षमता मानी जाती है,लेकिन आज पान की जगह पर गुटका का राज हो गया है पुडी फ़ाडी और मुंह में डाली आगे पीछे क्या होगा किसी को पता नही है। जब बारात विदा होती थी तो बहू की पालकी और बहू के उतारने चढाने के लिये वर के छोटे भाइयों को प्रयोग में लाया जाता था,उन्हे साहबोला कहा जाता था,साहबोला ही बहू को घर तक लाने की जिम्मेदारी निभाता था,बहू को रास्ते में पानी के लिये पूंछना,भोजन करवाना,तथा लैट्रिन बाथरूम करवाने की जिम्मेदारी साहबोला के ऊपर ही हुआ करती थी,वर और बधू को किसी वाहन से लाते वक्त एक साथ बिठाया जाता था,उसी समय बाराती अन्दाज लगा लिया करते थे कि बहू और लडके में कौन शारीरिक रूप से ह्रष्ट पुष्ट है,अगर वर बहू से कमजोर होता था तो उसके लिये वर के पिता से कह दिया जाता था कि इसे एक भैंस पिलानी जरूरी है,अगर बहू कमजोर हुआ करती थी तो कह दिया जाता था कि बहू की गोने की विदा तीसरी साल ही करनी है,उससे पहले विदा करवाने से बहू के जीवन को खतरा हो सकता है। बहू जब घर में आती थी तो कंकन छोरने की प्रथा भी हुआ करती थी,एक थाली में हल्दी मिले पानी को डाला जाता था उसके अन्दर एक आटे की मछली को बनाकर उसके अन्दर धागा बांध कर घर की भाभियां उस मछली को थाल में नचाया करती थीं और वर तथा वधू को उस मछली को तीर कमान से बेधने के लिये कहा जाता था,जो पहले उस मछली को तीर से वेधा करता था उसे ही बुद्धिमानी का दर्जा दिया जाता था,लोगों के अन्दर यह भाव पैदा हो जाता था कि बहू चालाक है या लडका चालाक है। इन बातों के बाद बहू को घर के कार्यों में नही लगाया जाता था,उसे तब तक घर के कार्यों से दूर रखा जाता था जब तक उसकी मुंह दिखाई चलती थी,समाज गांव और जान पहिचान वाले अपने अपने समय के अनुसार आया करते थे,सभी बहू की मुंह दिखाई किया करते थे,बहू को सुबह से लेकर शाम तक अपने को सजाकर रखना पडता था,कोई औरत जब घूंघट को उठाती तो बहू आंखे बन्द करके रखती थी,और जब वह औरत मुंह देख लेती थी तो तारीफ़ तो करती ही थी,कि बहू बहुत सुन्दर है,उसे मुंह दिखाई का नेग दिया जाता था जिसे व्यवहार माना जाता था,और किसी काफ़ी में उसे घर की औरतें लिख लिया करती थी,बाद में चर्चा भी होती थी कि अमुक की बहू को इतना व्यवहार दिया था,और अमुक ने व्यवहार सही लौटाया है या नही इस तरह से बहू की सुन्दरता की चर्चा काफ़ी समय तक होने से बहू के अन्दर भी स्वाभिमान आजाता था कि वह सुन्दर है और उसे अपनी सुन्दरता का ख्याल रखने के साथ घर के लोग जो उसे तारीफ़ दे रहे है,उसका ख्याल रख रहे है उनके लिये अपनी पूरी कोशिश करने के बाद उन्हे खुश रखा जाये। उसके बाद बहू को रोटी छुआने का कार्यक्रम हुआ करता था,बहू से ही उस दिन खाना बनवाया जाता था,सभी घर के बुजुर्ग उस दिन रोटी खाकर भोजन की तारीफ़ करने के बाद बहू को नेग दिया करते थे,और बाहर के लोग भी भोजन को किया करते थे तथा गांव समाज में उस भोजन की तारीफ़ की जाती थी,इस प्रकार से जब बहू की विदा होती थी तो उसे चौथी की विदा कहा जाता था,यानी बहू के आने के बाद चौथे दिन उसे अपने घर वापस जाना होता था। जब बहू अपने घर चली जाती थी तो पंडित से गौने की विदा का मुहूर्त निकलवाया जाता था,गौना कभी कभी तीन साल के बाद भी करवाया जाता था,इस बीच वर और वधू के बीच चिट्ठी पत्री से सम्पर्क चला करता था,और बीच में वर को वधू के घर या वधू को वर के घर आन जाने से सख्त मनाही होती थी,गौने की विदा तक एक दूसरे के लिये जो आकर्षण पैदा होता था वही सच्चा प्रेम माना जाता था,जब गौने की विदा होती थी तो तीन महिने तक या श्रावण के महिने तक ही विदा की जाती थी,क्योंकि पहली होली और पहला श्रावण बहू को अपने पीहर में ही बिताना होता था,उस समय भी एक दूसरे के आकर्षण की सीमा में बढोत्तरी हुआ करती थी। इस प्रकार से वर और वधू के बीच की दूरी एक समय सीमा के अन्दर रखी जाती थी,जितनी दूरी को बढाया जाता था उतना ही प्रेम आपस में पनपता था,और इसी दूरी के बीच में एक या दो सन्तान हो जाती थी जिससे वह आकर्षण फ़िर सन्तान की तरफ़ चला जाता था। घर के बडे बुजुर्गों के सामने बहू और लडका आपस में बात भी नही कर सकते थे,दिन के समय लडका और बहू किसी विशेष परिस्थिति के अलावा बात भी नही करते थे,जब बहू शाम को घर के सभी कार्यों से निपट जाती थी,तब वह लडके के पास जाती थी,इसी बीच लडके के अन्दर जो इन्तजार करने का प्रभाव होता था वह एक नयापन लेकर प्यार करने का इन्तजार माना जाता था,दोनो एक समय सीमा तक ही एक दूसरे के पास रहा करते थे,भोर होने से पहले बहू को सबसे पहले इसलिये जागना पडता था,क्योंकि उसकी जिठानिया और घर के अन्य सदस्य उसे सुबह ताने न मार पायें। इस प्रकार से चलने वाली वैवाहिक जिन्दगी बिना किसी रुकावट के चला करती थी,लडका या लडकी के अन्दर की कोई भी कमी अगर भयंकर नही होती थी तो समाज के सामने भी नही आती थी,कुरूप लडकी और लडके की भी शादी होती थी,और दोनो से जो सन्ताने होती थी वे बहू के अनुरूप ही हुआ करती थी,घर में सभी कार्यों के अलावा लिखाने पढाने के लिये भी अच्छी प्रथा हुआ करती थी लकडी की पाटी पर बच्चों को पांडु मिट्टी से अक्षर लिखना बताया जाता था,बच्चा आराम से सीख जाता था।

जमाना बदला सभी रीतिरिवाज बदले,आदमी के पास फ़ुर्सत नामकी चीज गायब हो गयी,उसके लिये जो भी करना होता है वह जल्दी से करने की कोशिश करता है। आज शादी पक्की होती है कल हो जाती है,परसों उसे तोड दिया जाता है,पांचवे दिन वह शादी का केश पारिवारिक न्यायलय में चला जाता है फ़िर शुरु हो जाता है तारीखों का खेल,और आधी अधूरी जिन्दगी इसी खेल के अन्दर गुजर जाती है,पारिवारिक न्यायालय कभी कभी जल्दबाजी भी करते है तो वन टाइम सैटिल मेंट करने के बाद तलाक कर देते है। इस तलाक के बाद स्त्री और पुरुष दोनो ही दुबारा से शादी करने के लिये तैयार हो जाते है। "शील" नामका जो गुण था वह इन बातों से स्त्री और पुरुष दोनों के अन्दर से गायब हो जाता है,जिस शील की रक्षा करने के लिये हर स्त्री का अधिकार होता है उस अधिकार को आज के समाज ने नजर अन्दाज कर दिया है। सबसे पहले लडकी के माता पिता को सोचना चाहिये कि उन्होने अपनी लडकी को पैदा किया है मान सम्मान से रहने की शिक्षा दी है,उस लडकी को अगर पारिवारिक जिम्मेदारियों के बोझ से दूर करने के बाद वैवाहिक जीवन से दूर कर दिया जायेगा तो वह कितना अच्छा होगा या कितना बुरा होगा। विवाह एक पवित्र बन्धन है,इस बन्धन के बाद पति और पत्नी को केवल काम सुख के लिये प्रयोग में लाया जाता है और पति पत्नी का सम्बन्ध केवल सन्तान के बल से अपने को पूरित करना होता है,एक लडकी का पिता किसी भी तरह से यह नही चाहेगा कि उसकी लडकी के साथ कई पुरुष अदालती या समाज का बल लेकर संभोग करें,जैसे एक तलाक लेकर दूसरी शादी करने के बाद एक ही लडकी कई मर्दों के साथ कानूनी रूप से वैवाहिक जीवन बिताये। जान बूझ कर जो लोग जिन्दा मक्खी को निगल रहे है उनके लिये शील को खत्म करने वाली बात ही मानी जा सकती है। एक पिता अगर अपने पुत्र के लिये दूसरी बहू को तलाशने का कार्य करता है तो उससे भी यही शील खत्म करने वाली बात को ही मान लेना चाहिये,अगर उसने अपने पुत्र की पहली शादी को तोड कर दूसरी शादी की है तो जो लडकी दुबारा घर में आयेगी वह घर की लक्ष्मी कैसे बन सकती है,जैसे उनके लडके ने किसी का शील तोडा है तो उनकी बहू का भी शील कोई दूसरा तोड चुका होगा। इस टूटे हुये शील के बहू या लडके से जो सन्तान आयेगी वह भी शील नामके शब्द को भी नही मानेगी,यह अप्रत्यक्ष रूप से बकरी पालने वाले रेवड जैसा हो गया,एक रेवड वाला अपनी बकरी को दूसरी रेवड वाले को बेच देता है,उस रेवड में जो बकरे होते है वे उसे भोगते है और जो बकरे पैदा होते है वे कसाई के लिये काटने के लिये काफ़ी होते है।

हर व्यक्ति के अन्दर नयापन लाने के लिये मन कल्पता है,उस नये पन को लाने के लिये ही पुराने समाज ने शादी और उसके बाद गौना फ़िर शादी विदा और समय मुहूर्त को प्रकट किया था,जब तक इन बातों की मान्यता रही तब तक समाज के अन्दर एकता भी रही और लोग अनीति से डरते रहे,आज कानून से अगर एक लडकी को कोई बलात्कार कर दे तो उसके लिये सजा कम से कम सात साल की होती है,वही लडकी अगर अपनी मर्जी से एक तलाक देकर दूसरी जगह अपनी शादी कर लेती है और एक मर्द के बाद दूसरे मर्द के साथ रहकर आराम से संभोग करती है तो क्या यह हिन्दू समाज की एकरूपता मानी जा सकती है,यह तो किसी भी वैदिक शास्त्र में नही लिखा है कि एक स्त्री कई मर्दों के साथ अपना जीवन केवल अपने नये पन को प्राप्त करने के लिये बिताये और वह हिन्दू की मान्यता में घर की लक्ष्मी कहलाये,इस प्रकार के कृत्य को साधारण भाषा में वैश्या वाला कृत्य ही कहा जायेगा जो तलाक देने और तलाक के बाद दूसरा विवाह करने के लिये अप्रत्यक्ष रूप से सभी के सामने है। उस नये पन के लिये लडकी के पिता और लडके के परिवार वालों को शादी विवाह एक भार रूप में नही देखकर सम्बन्ध के रूप में देखना सही है,इससे जो भी आगे की सन्तान होंगी वे कम से कम शील नामके इस शब्द को तो समझ पायेंगी जो उनके लिये मर्यादा और स्वच्छ सन्तति के लिये माना जायेगा।

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